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________________ १२ अंगविज्जापइण्णयं इस ग्रन्थ में मनुष्य के साथ सम्बन्ध रखनेवाले अनेक पदार्थ, जैसे कि-चतुर्वर्ण विभाग, जाति विभाग, गोत्र, योनि-अटक, सगपण सम्बन्ध, कर्म-धंधा-व्यापार, स्थान-अधिकार, आधिपत्य, यान-वाहन, नगर-ग्राम-मडंबद्रोणमुखादि प्रादेशिक विभाग, घर-प्रासादादि के स्थान-विभाग, प्राचीन सिक्के, भाण्डोपकरण, भाजन, भोज्य, रस सुरा आदि पेय पदार्थ, वस्त्र, आच्छादन, अलंकार, विविध प्रकार के तैल, अपश्रय-टेका देने के साधन, रतसुरत क्रीडा के प्रकार, दोहद, रोग, उत्सव, वादित्र, आयुध, नदी, पर्वत, खनिज, वर्ण-रंग, मंडल, नक्षत्र, कालवेला, व्याकरण विभाग, इन सब के नामादि का विपुल संग्रह है। तिर्यग्विभाग के चतुष्पद, परिसर्प, जलचर, सर्प, मत्स्य, क्षुद्रजन्तु आदि के नामादि का भी विस्तृत संग्रह है । वनस्पति विभाग के वृक्ष, पुष्प, फल, गुल्म, लता आदिके नामोंका संग्रह भी खूब है। देव और देवियों के नाम भी काफी संख्या में हैं । इस प्रकार मनुष्य, तिर्यंच, वनस्पति आदि के साथ सम्बन्ध रखनेवाले जिन पदार्थों का निर्देश इस ग्रंथ में मिलता है, वह भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता की दृष्टि से अति महत्त्व का है। आश्चर्य की बात तो यह है कि ग्रंथकार आचार्य ने इस शास्त्र में एतद्विषयक प्रणालिकानुसार वृक्ष, जाति और उनके अंग, सिक्के, भांडोपकरण, भाजन, भोजन, पेयद्रव्य, आभरण, वस्त्र, आच्छादन, शयन, आसन, आयुध, शुद्रजन्तु आदि जैसे जड एवं क्षुद्रचेतन पदार्थों को भी इस ग्रन्थ में पुं-स्त्री-नपुंसक विभाग में विभक्त किया है । इस ग्रंथ में सिर्फ इन चीजों के नाममात्र ही मिलते हैं, ऐसा नहीं किन्तु कई चीजों के वर्णन और उनके एकार्थक भी मिलते हैं। जिन चीजों के नामों का पता संस्कृत-प्राकृत कोश आदि से न चले, ऐसे नामों का पता इस ग्रन्थ के सन्दर्भो को देखने से चल जाता है । इस ग्रंथ में शरीरके अङ्ग, एवं मनुष्य-तिर्यंच-वनस्पति-देव-देवी वगैरहके साथ संबंध रखनेवाले जिनजिन पदार्थों के नामों का संग्रह है वह तद्विषयक विद्वानों के लिये अति महत्त्वपूर्ण संग्रह बन जाता है। इस संग्रह को भिन्न भिन्न दृष्टि से गहराईपूर्वक देखा जायगा तो बड़े महत्त्व के कई नामों का तथा विषयों का पता चल जायगा । जैसे कि क्षत्रप राजाओं के सिक्कों का उल्लेख इस ग्रन्थ में खत्तपको नाम से पाया जाता है [देखो अ० ९ श्लोक १८६] । प्राचीन खुदाईमेंसे कितने ही जैन आयागपट मीले हैं, फिर भी आयाग शब्द का उल्लेख-प्रयोग जैन ग्रन्थों में कहीं देखने में नहीं आता है, किन्तु इस ग्रन्थ में इस शब्द का उल्लेख पाया जाता है [देखो पृष्ट १५२, १६८] | सहितमहका नाम, जो श्रावस्ती नगरी का प्राचीन नाम था उसका भी उल्लेख इस ग्रन्थ में अ० २६, श्लो. १५३ में नजर आता है। इनके अतिरिक्त आजीवक, डुपहारक आदि अनेक शब्द एवं नामादिका संग्रह-उपयोग इस ग्रन्थ में हुआ है जो संशोधकों के लिये महत्त्व का है। परिशिष्टों का परिचय इस ग्रन्थ के अन्त में ग्रन्थ के नवीनतमरूप पाँच परिशिष्ट दिये गये हैं। उनका संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जाता है। प्रथम परिशिष्ट-इस परिशिष्ट में अङ्गविद्या के साथ सम्बन्ध रखनेवाले एक प्राचीन अङ्गविद्या विषयक अपूर्ण ग्रन्थ को प्रकाशित किया है । इस ग्रन्थ का आदि-अन्त न होने से यह कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ है या किसी ग्रन्थ का अंश है-यह निर्णय मैं नहीं कर पाया हूँ । दूसरा परिशिष्ट-इस परिशिष्ट में अङ्गविज्जा शास्त्र के शब्दों का अकारादि कम से कोश दिया गया है जिसमें अङ्गविज्जा के साथ सम्बन्ध रखनेवाले सब विषयों के विशिष्ट एवं महत्त्व के शब्दों का संग्रह किया योगिक दृष्टि से जो शब्द महत्त्व के प्रतीत हुए हैं इनका और देश्य शब्दादिका भी संग्रह इसमें किया है । जिन शब्दों के अर्थादि का पता नहीं चला है वहाँ (?) ऐसा प्रश्नचिह्न रक्खा है । इसके अतिरिक्त प्रायः सभी शब्दों का किसी न किसी रूप में परिचयादि दिया है। सिद्धसंस्कृत प्रयोगादि का भी संग्रह किया है। इस तरह प्राकृत भाषा एवं सांस्कृतिक दृष्टि से इसको महद्धिक बनाने का यथाशक्य प्रयत्न किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001439
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size12 MB
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