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________________ प्रस्तावना एक्कं चुक्किहिसि, पण्णरह अच्छिड्डाणि भासिहिसि, ततो अजिणो जिणसंकासो भविहिसि" पृष्ठ २६५, अर्थात् "सोलह फलादेश तू करेंगा उनमें से एकमें चूक जायगा, पनरहको संपूर्ण कह सकेगा-बतलाएगा, इससे तू केवलज्ञानी न होने पर भी केवली समान होगा ।" इस शास्त्र के ज्ञाता को फलादेश करने के पहले प्रश्न करनेवालेकी क्या प्रवृत्ति है ? या प्रश्न करनेवाला किस अवस्था में रहकर प्रश्न करता है? इसके तरफ उसको खास ध्यान या खयाल रखने का होता है। प्रश्न करनेवाला प्रश्न करने के समय अपने कौन-कौन से अङ्गों का स्पर्श करता है? वह बैठ के प्रश्न करता है या खड़ा रहकर प्रश्न करता है ?, रोता है या हँसता है ?, वह गिर जाता है, सो जाता है, विनीत है या अविनीत ?, उसका आनाजाना, आलिंगन-चुंबन करना, रोना, विलाप करना या आक्रन्दन करना, देखना, बात करना वगैरह सब क्रियाओं की पद्धति को देखता है; प्रश्न करनेवाले के साथ कौन है ? क्या फलादि लेकर आया है ?, उसने कौन से आभूषण पहने हैं वगैरह को भी देखता है और बाद में अङ्गविद्या का ज्ञाता फलादेश करता है। ___ इस शास्त्र के परिपूर्ण एवं अतिगंभीर अध्ययन के बिना फलादेश करना एकाएक किसी के लिये भी शक्य नहीं है। अत: कोई ऐसी सम्भावना न कर बैठे कि इस ग्रन्थ के सम्पादक में ऐसी योग्यता होगी । मैंने तो इस वैज्ञानिक शास्त्र को वैज्ञानिक पद्धति से अध्ययन करने वालों को काफी साहाय्य प्राप्त हो सके इस दृष्टि से मेरेको मिले उतने इस शास्त्र के प्राचीन आदर्श और एतद्विषयक इधर-उधर की विपुल सामग्री को एकत्र करके, हो सके इतनी केवल शाब्दिक ही नहीं किन्तु आर्थिक संगतिपूर्वक इस शास्त्र को शुद्ध बनाने के लिये सुचारु रूप से प्रयत्नमात्र किया है। अन्यथा मैं पहिले ही कह चुका हूँ कि काफी प्रयत्न करने पर भी इस ग्रन्थ की अति प्राचीन भिन्न भिन्न कुल की शुद्ध प्रतियाँ काफी प्रमाण में न मिलने के कारण अब भी ग्रन्थ में काफी खंडितता और अशुद्धियाँ रह गई हैं । मैं चाहता हूँ कि कोई विद्वान् इस वैज्ञानिक विषय का अध्ययन करके इसके मर्म का उद्घाटन करे । ऊपर कहा गया उस मुताबिक कोई वैज्ञानिक दृष्टिवाला फलादेश की अपेक्षा इस शास्त्र का अध्ययन करे तो यह ग्रन्थ बहुत कीमती है-इसमें कोई फर्क नहीं है । फिरभी तात्कालिक दूसरी दृष्टि से अगर देखा जाय तो यह ग्रन्थ कई अपेक्षा से महत्त्व का है। आयुर्वेदज्ञ, वनस्पतिशास्त्री, प्राणीशास्त्री, मानसशास्त्री, समाजशास्त्री, वगैरह को इस ग्रन्थ में काफी सामग्री मिल जायगी । भारत के सांस्कृतिक इतिहासप्रेमियों के लिये इस ग्रन्थ में विपुल सामग्री भरी पड़ी है। प्राकृत और जैन प्राकृत व्याकरणों के लिये भी सामग्री कम नहीं है । भविष्य में प्राकृत कोश के रचयिता को इस ग्रन्थ का साद्यन्त अवलोकन नितान्त आवश्यक होगा । सांस्कृतिक सामग्री इस अंगविद्या ग्रन्थ का मुख्य सम्बन्ध मनुष्यों के अंग एवं उनकी विविध किया-चेष्टाओं से होने के कारण इस ग्रन्थ में अंग एवं क्रियाओं का विशदरूप में वर्णन है। ग्रन्थकर्त्ताने अंगो के आकार-प्रकार, वर्ण, संख्या, तोल, लिङ्ग, स्वभाव आदि को ध्यान में रखकर उनको २७० विभागों में विभक्त किया है [देखो परिशिष्ट ४] । मनुष्यों की विविध चेष्टाएँ, जैसे कि बैठना, पर्यस्तिका, आमर्श, अपश्रय-आलम्बन टेका देना, खडा रहना, देखना, हँसना, प्रश्न करना, नमस्कार करना, संलाप, आगमन, रुदन, परिदेवन, क्रन्दन, पतन, अभ्युत्थान, निर्गमन, प्रचलायित, जम्भाई लेना, चुम्बन, आलिंगन, सेवित आदि; इन चेष्टाओं को अनेकानेक भेद-प्रकारों में वर्णन भी किया है। साथ में मनुष्यके जीवन में होनेवाली अन्यान्य क्रिया-चेष्टाओं का वर्णन एवं अनेक एकार्थकों का भी निर्देश इस ग्रन्थ में दिया है। इससे सामान्यतया प्राकृत वाङ्मय में जिन क्रियापदों का उल्लेख-संग्रह नहीं हुआ है उनका संग्रह इस ग्रंथ में विपुलता से हुआ है, जो प्राकृत भाषा की समृद्धि की दृष्टि से बड़े महत्त्व का है [देखो तीसरा परिशिष्ट] । सांस्कृतिक दृष्टि से इस ग्रंथ में मनुष्य, तिर्यंच अर्थात् पशु-पक्षि-क्षुद्रजन्तु, देव-देवी और वनस्पति के साथ सम्बन्ध रखनेवाले कितने ही पदार्थ वर्णित है [देखो परिशिष्ट ४] । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001439
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size12 MB
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