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प्रस्तावना त का अविकार-उतु, चेतित, वेतालिक, पितरो, पितुस्सिया, जूतगिह, जूतमाला, जोतिसिक आदि । थ का विकार-आमधित, वीधी, कधा, मणोरध, रधप्पयात, पुधवी, गूध, रायपध, पाधेज्ज, पधवावत, मिधो, तध,
जूधिका आदि । थ का अविकार-मधापथ, रथगिह आदि । द का विकार-कतंब, कातंब, रापप्पसात, लोकहितय, रातण सं. राजादन, पातव, मुनिंग सं. मृदङ्ग, वेतिया आदि । द का अविकार-ओदनिक, पादकिंकणिका, अस्सादेहिति, पादखडुयक आदि । ध का विकास-परिसाहसतो सं. पर्षद्धर्षक: आदि । ध अविकार-ओधि, ओसध, अविधेय, अव्वाबाध, खुधित, पसाधक, छुधा, सं. क्षुधा आदि । प का विकार-वउत्थ आदि । प का अविकार-अपलिखित, अपसारित, अपविद्ध, अपसक्कंत, पोरेपच्च सं० पुरःपत्य, चेतितपादप आदि । भ का अविकार-परभुत सं० परभृत आदि । य का विकार-असव्वओ जसवओ सं. यशस्वतः आदि । र का विकास-दालित सं. दारित, फलिखा सं. परिखा, लसिया सं. रसिका आदि । व का विकार-अपमक सं. अवमक, अपमतर, अपीवर सं. अविवर, महापकास सं. महावकाश आदि । ह का विकार-रमस्स सं. रहस्य, बाधिरंग सं. बाह्याङ्ग, प्रधित सं. प्रहित, णाधिति प्रा. णाहिति सं. ज्ञास्यति आदि ।
लुप्त व्यंजनों के स्थान में महाराष्ट्री प्राकृत में मुख्यतया अस्पष्ट य श्रुति होती है, परन्तु जैन प्राकृत में त, ग, य, आदि वर्गों का आगम होता है।
त का आगम-रातोवरोध सं. राजोपरोध, पूता सं. पूजा, पूतिय सं. पूजित, आमतमत सं. आमयमय, गुरुत्थाणीत सं. गुरुस्थानीय, चेतितागत सं. चैत्यगत, पातुणंतो सं. प्रगुणयन्, जवातू सं. यवागू, वीतपाल सं. बीजपालु आदि ।
ग का आगम-पागुन सं. प्रावृत, सगुण सं. शकुन आदि ।
य का आगम-पूयिय सं. पूजित, रयित सं. रचित, पयुम सं. पद्म, रयतगिह सं. रजतगृह, सम्मोयिआ सं. सम्मुद् आदि ।
जैन प्राकृत में कभी कभी शब्दों के प्रारम्भके स्वरों में त का आराम होता है। ये प्रयोग प्राचीन भाष्यचूर्णि और मूल आगम सूत्रों में भी देखे जाते हैं । तोपभोगतो सं. उपभोगतः, तूण सं. ऊन, तुहा सं. ऊहा, तेतेण सं. एतेण, तूका सं. यूका आदि ।
अनुस्वार के आगमवाले शब्द-गिंधी सं. गृद्धि, संली सं. श्याली, मुंदिका सं. मृद्वीका, अप्पणि सं. आत्मनि आदि ।
अनुस्वार का लोप-सस्सयित सं. संशयित आदि ।
प्राकृत भाषा में हस्व-दीर्घस्वर एवं व्यंजनों के द्विर्भाव-एकीभाव का व्यत्यास बहुत हुआ करता है। इस ग्रंथ में ऐसे बहुत से प्रयोग मिलते हैं-आमसती सं. आमृशति, अप्पणी सं. आत्मनी, णारिए सं. नार्याः, वुख सं. वृक्ष, णिखुड, णिकूड, कावकर, सयाण सं. सकर्ण आदि ।
जैसे प्राकृत में शालिवाहन शब्द का संक्षिप्त शब्दप्रयोग सालाहण होता है वैसे ही जैन प्राकृत में बहुत से संक्षिप्त शब्दप्रयोग पाये जाते हैं-साव और साग सं. श्रावक, उज्झा सं. उपाध्याय, कयार सं. कचवर, जागू सं. यवागू, रातण सं. राजादन आदि ।
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