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________________ प्राचीन अर्धमागधी की खोज में के आर. चन्द्र .. (३) मौलिक पाठों के विषय में पुन: गंभीर विचार करना आवश्यक है । (४) चूर्णिकार के सामने जो पाठ थे वे किसी भी प्रत में नहीं मिले । (५) मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजन का प्रायः लोप और महाप्राण का प्रायः ह-इन नियमों को इतना अधिक स्थान प्राप्त नहीं था । (६) परवर्ती आचार्यों ने जानबुझकर प्रयोगों को बदला हैं अथवा प्राचीन शब्द प्रयोग नहीं समझने के कारण उनको बदल दिया हैं । फिर भी अनेकानेक स्थलों पर मौलिक प्रयोग बच गये हैं। (७) परवर्ती काल में हरेक प्रदेश में प्राकृत भाषा खिचड़ी बन . गयी है और आगमों की भाषा भी खिचड़ी बन गई है। (८) इन सभी कारणों से जन अर्धमागधी आगमों की मौलिक ___ भाषा कैसी थी उसे खोज निकालना दुष्कर हो गया है । हरेक आगम ग्रंथ, भाष्य और चूर्णी ग्रंथ में यह परिवर्तन घर कर गया है । (९) संशोधन के लिए मात्र पू. हेमचन्द्राचार्यका व्याकरण पर्याप्त नहीं है । पू. मुनिजी के अभिप्राय के जो मुद्दे ऊपर दिये गये हैं उनमें से नं. ३,५,६ और ९ बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । हमारे अध्ययन तथा संशोधन कार्य के दरमियान हमें भी ऐसी ही प्रतीति हुई है कि भाषाकीय दृष्टि से जैन आगमों का पुन: सम्पादन किया जाना चाहिए । १. क्या इसी कारण पू. हेमचन्द्राचार्य के प्राकृत व्याकरण में अर्धमागधी की अपनी कोई मौलिकता स्पष्ट रूप में उपलब्ध नहीं हो रही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001435
Book TitlePrachin Ardhamagadhi ki Khoj me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages136
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Grammar
File Size6 MB
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