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आचारांग के उपोद्घात के वाक्य का पाठ
अन्यथा यह प्रयोग योग्य नहीं लगता है ।
आचारांग के टीकाकार भी इस प्रयोग के बारे में एक मत नहीं हैं । चूर्णीकार (१ - 9) 'आउसं तेण' के स्थान पर 'आउसंतेण ' पाठकी भी संभावना करते हैं और लिखते हैं - अहवा आउसंतेण, जीवता कहितं अथवा आउसंतेण गुरुकुलवासं अहवा आउसंतेण सामिपादा विजयपुव्वो सिस्सायरियकमो दरिसिओ होइ आवसंत आउस तग्गहणेण ।
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शीलांकाचार्य (पृ. 11 ) 'श्रुतं मया आयुष्मन्' का अर्थ समझाते हुए बतलाते हैं - ' मयेति साक्षान्न पुनः पारम्पर्येण' यानि मैंने साक्षात् रूप से न कि परम्परा से सुना । आगे पुनः वे कहते हैं- 'यदि वा आमृशता भगवत्पादारविन्दम् .. आवसता वा तदन्तिक इत्यनेन गुरुकुलवासः कर्त्तव्य इत्यावेदितं भवति एतच्चार्थद्वयं 'आमुस तेण आवस' तेणे' त्येतत्पाठान्तरमाश्रित्यावगन्तव्यमिति । इस प्रकार समझाया जाने पर यही उचित लगता है कि सुधर्मास्वामी ने भगवान महावीर के पास रहते हुए यह उपदेश सुना । इस दृष्टि से 'आउस' तेण' पाठ ही उपयुक्त लगता है । आचारांग के द्वितीय श्रुत- स्कंध में (म. जै. वि) भी ऐसा ही पाठ मिलता है - 'सुयं में आउस तेण भगवया एत्रमक्खायं ' सूत्र 635 | चूर्णीका भी यही पाठ है और उसमें 'भंगवया' के स्थान पर 'भगवता ' पाठ है । ( म. जै. वि. पाद टिप्पण 2 पृ. 227.)
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योग्य
यह है कि जहाँ
2. संबोधन के लिए नींन प्रकार के शब्दरूप मिलते हैं— आउस, आउमो और आउन तो आउसो एकवचन के लिए, आउसंतो बहुवचन के लिए या सम्मानार्थ एकवचन के लिए । एक बात ध्यान देने पर भी 'आउस' का प्रयोग है उसके आगे ते आउस ते में से ही आउस और तेण परवर्ती काल में और इस प्रयोग के पहले 'सुर्य' मे' भी मिलता है अर्थात् 'सुय
शब्द
"
ही होना चाहिए था ।
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मिलता है, अतः
अलग हो गये हैं
मे आउस तेण "
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