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आचार्य श्री हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण की अर्धमागधी भाषा
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प्रदेश के शिलालेखों की यह एक लाक्षणिकता है । इसी नियम से 'ने' = (नः = अस्माकम् ) को 'नो' में नहीं बदलना चाहिए ।
23. उसी तरह पंचमी एक वचन में क्रियाविशेषण के लिए व्यंजनान्त शब्दों का पुराना रूप मिले तो रखा जाना चाहिए (जैसे - पदिसो ), तृ. ए. व. के अर्थ में जैसे -- कमसो और खरान्त शब्दों में – सो विभक्ति वाला रूप, जैसे- सव्वसो, इत्यादि ।
24. पंचमी एक वचन की ऐतिहासिक विभक्ति - म्हा मिले तो रखी जानी चाहिए ।
25. स्त्रीलिंगी शब्दों में तृतीया से सप्तमी तक एक वचन की विभक्तियाँ -य, या, ये (अथवा - इ और - आ भी) को मात्र पालि की विभक्तियाँ मानकर उन्हें त्याज्य नहीं समझा जाना चाहिए । 26. वर्तमान कृदन्त के पुं. षष्ठी ए. व. के रूप के अन्त में आने वाला - तो या - ओ सुरक्षित रखा जाना चाहिए ।
27. सप्तमी एक वचन की विभिन्न ऐतिहासिक विभक्तियाँ - हिंस, रिस, स्मि, स्मि, हिं या म्हि मिले तो उन्हें सुरक्षित रखना चाहिए ( स और म की आपस की भ्रान्ति मात्र हस्तप्रतों में ही नहीं परंतु शिलालेखों में भी देखने को मिलती है, इसी कारण कभी कभी - सिया – अंस का -मिया - अमि हो जाने के उदाहरण हैं । 28. वर्त. काल तृ. पु. ए. व. का प्रत्यय – ति मिले तो उसे
- इ में नहीं बदलना चाहिए ।
- उसे -ति, या -इ अथवा 30. विधिलिङ्ग के से प्राचीन हैं अतः उन्हें प्राथमिकता दी जानी चाहिए ।
29. तृ. पु. ए. व. आत्मनेपदी ती, या - ए और
-या प्रत्यय
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प्रत्यय - ते (-ए) मिले तो
. ई में नहीं बदलना चाहिए ।
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-- ज्ज और -ज्जा
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