________________
29
पू. युवाचार्य महाप्रज्ञ __हमारे पास चार करण होते हैं - मनकरण, वचन-करण, काय-करण
और कर्म-करण । अशुभकरण से असुख का और शुभकरण से सुख का संवेदन होता है।
श्वेताम्बर साहित्य में 'करण' के विषय में अर्थ की परंपरा विस्मृत हो गई । दिगम्बर साहित्य में वह आज भी उपलब्ध है। उससे चक्र या चैतन्यकेन्द्र के बारे में बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है ।
करण का एक अर्थ होता है-निर्मल चित्त-धारा । उसका दूसरा अर्थ हैचित्त की निर्मलता से होनेवाली शरीर, मन आदि की निर्मलता । शरीर के जिस देश में निर्मलता हो जाती है, अर्थात् शरीर का जो भाग करण रूप मे परिणत हो जाता है, उस भाग से अतीन्द्रियज्ञान होने लग जाता है। इस दृष्टि से हमारे शरीर में अवधिज्ञान के जो अनेक क्षेत्र हैं या अनेक संस्थान हैं ये ही चक्र या चैतन्य-केन्द्र हैं।
श्वेताम्बर साहित्य में चक्र-सिद्धान्त का मौलिक आधार है देशावधिज्ञान । प्रज्ञापना में अवविज्ञान के दो प्रकार उपलब्ध हैं देशावधि और सर्वावधि । नंदी में देशावधि, सर्वावधि का उल्लेख नहीं है, केवल परमावधि का उल्लेख मिलता है। गोम्मटसार में अवधिज्ञान के तीन प्रकार मिलते हैं-देशावधि, परमावधि और सर्वावधि ।
नंदी में अवधिज्ञान के छह प्रकार किए गए हैं। उनमें पहला प्रकार आनुगामिक है। उसके दो प्रकार हैं-अंतगत और मध्यगत ।" यह विषय अन्य किसी भी उपलब्ध आगम ग्रंथ में नहीं है । प्रतीत होता है कि देववाचक ने यह पूरा प्रकरण ज्ञान-प्रवाद नामक पूर्व से लिया था । इस दृष्टि से नन्दी सूत्र का मुख्य आधार ज्ञानप्रवादपूर्व हो सकता है । स्थानांग, समवायांग, भगवती आदि इसके आधार नहीं हो सकते । ज्ञानप्रवाद चौदह पूर्वो में पाँचवाँ पूर्व है। उसकी विशाल ग्रंथ-राशि में ज्ञान का ही निरूपण है ।२।।
नंदी के इस प्रकरण से एक चिर जिज्ञासित प्रश्न का समाधान होता है ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org