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स्थानांग, नंदी और षट्खण्डागम में अतीन्द्रियज्ञान के केन्द्र तथा चक्र और
ग्रंथितंत्र
- पू. युवाचार्य महाप्रज्ञ, लाडनूं ' गोरक्ष पद्धति ' में ध्यान के नौ स्थान बतलाए गए हैं -' १. आधार चक्र २. स्वाधिष्ठान ३. मणिपूर ४. हृत्पद्म (अनाहत) ५. विशुद्ध ६. घण्टिकामूल ७. लम्बिकास्थान ८. आज्ञा चक्र और ९. शून्यस्थान । __प्रश्न होता है कि तंत्र-शास्त्र और हठयोग में तो चक्रों का निरूपण है, किन्तु जैन साहित्य में उनका कोई निरूपण नहीं है । जैन परम्परा में ध्यान की पद्धति का विलोप हो जाने के कारण इस प्रश्न का उत्तर खोजा भी नहीं गया। हरिभद्रसूरि, शुभचन्द्र, हेमचन्द्र आदि आचार्यों ने अपने योग ग्रन्थों में हठयोग का समावेश किया, किन्तु जैन साहित्य में उपलब्ध चक्रों की ओर ध्यान नहीं दिया । अतीन्द्रिय ज्ञान की खोज और उसकी उपलब्धि में जैन साधक आगे नहीं बढ़ सके । वास्तविकता यह है कि शरीर के बारे में सही जानकारी नहीं रही और उसका सही मूल्यांकन भी नहीं किया गया । हम केवल 'आत्मा' शब्द पर अटक गए । ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया जाए तो आध्यात्मिकता या आत्मतत्त्व की अतिवादी धारणा ने शरीर का सही मूल्यांकन नहीं होने दिया। भेदविज्ञान के दृष्टिकोण ने आत्मा और शरीर के भेद को जानने की साधना दी। किन्तु उन दोनों के योग से होने वाले लाभांशों की उपेक्षा हो गई । शरीरधारी मनुष्य का ज्ञान केवल आत्मा से संबद्ध नहीं होता । वह आत्मा और शरीर दोनों से सम्बन्ध रखता है । आचार्य मलयगिरि ने इस सत्य को बहुत अच्छी तरह अभिव्यक्ति दी है। उन्होंने लिखा है कि केवली आत्मा से और शरीर के सभी प्रदेशों से जानता देखता है तथा छद्मस्थ मनुष्य अंगोपांग नामकर्म द्वारा संस्कृत इन्द्रिय-द्वारों से जानता देखता है।
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