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आचारांग में साधना के सूत्र - आचार्य तुलसी, लाडनू
जैन आगम चार भागों में विभक्त है । उनमें एक भाग हैआचार शास्त्र । आचारांग आचारशास्त्रीय परम्परा का प्रतिनिधि सूत्र है । इन शताब्दियों में आचार के विषय में हमारा दृष्टिकोण बहुत सकुचित हो गया है। पांच महाव्रत और पांच समिति की आराधना को ही आचार के क्षेत्र में मान्यता प्राप्त है। तीन गुप्ति की आराधना उस क्षेत्र से बहिष्कृत जैसी हो गई ।
आचारांग सूत्र में गुप्तित्रय की आराधना के अनेक महत्त्वपूर्ण निर्देश हैं । साधना के अभाव में उनके अर्थ भी विस्मृत हो गए । अन्तर्दृष्टि का निर्देश अन्तर्दृष्टि की साधना के बिना नहीं पकड़ा जा सकता । अन्तर्दृष्टि को जागृत करने के लिए गुप्ति की साधना बहुत आवश्यक है । प्रस्तुत आगम में मन, वचन और काया का निरोध करने वाले को मुनि कहा गया है - "जस्सेते लोगंसि कम्मसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे "" ।
भगवान् महावीर ने कर्मयोग और कर्मत्याग दोनों का समन्वित मार्ग निरूपित किया था । उनकी साधनापद्धति का प्रमुख अंग हैसंवर कर्म का निरोध | किन्तु वह प्रथम चरण में ही संभव नहीं है । पहले कर्म का शोधन होता है, फिर कर्म का निरोध । पूर्ण कर्मनिरोध की स्थिति मुक्त होने के कुछ ही क्षणों के पूर्व प्राप्त होती है । क्रिया में जैसे जैसे आसक्ति और कषाय के अंश को कम किया जाता है। वैसे वैसे कर्म का शोधन होता चला जाता है ।
१. आयारो १/१२
1 : Seminar on Jain Agama
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