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s. पुष्पलता जैन
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है। जिन गुरुतर दोषों से महाव्रतों पर आघात होता है उनके होने पर दीक्षापर्याय का पूर्णतया छेदन कर दिया जाता है और पुन: दीक्षा दे दी जाती है । *" इसी को उमास्वातिने - उपस्थापना कहा है । अनवस्थाप्य परिहार में विशिष्ट गुरु- तर अपराध हो जाने पर साधक को श्रमण संघ से निष्कासित कर गृहस्थ वेश धारण करा दिया जाता है, बाद में विशिष्ट तप आदि करने के उपरांत पुनः दीक्षा दी जाती हैं । पाराचिक परिहार में छह माह से बारह वर्ष तक श्रमण संघ से निष्कासित किया जाता है । यह प्रायश्चित्त उस मुनि को दिया जाता है जो तीर्थकर, आचार्य, संघ आदि की झूठी निन्दा करता है, विरुद्ध आचरण करता है, किसी स्री का शीलभंग करता है, वध की योजना बनाता है अथवा इसी तरह के अन्य गुरुतर अपराधों में लिप्त रहता है ।
इन प्रायश्चित्तों के माध्यम से साधक अपना अंतर्मन पवित्र करता है और वह पुन: सही मार्ग पर आरूढ हो जाता है । यहां यह आवश्यक है कि व्रतों में अतिचार आदि दोष आ जाने पर तुरंत उसका प्रायश्चित्त ले लेना चाहिए अन्यथा उसका विस्मरण हो जाता है और फिर वह संस्कार सा बनकर रह जाता है । जो भी हो, प्रायश्चित्त अध्यात्म यात्रा की एक सीढ़ी मानी जा सकती है जिस पर चढकर साधक अपनी साधना में निखार लाता है और अपराधों से बचकर अपनी तपस्या को विशुद्ध कर लेता हैं ।
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टिप्पणी
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१.
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तत्त्वार्थ राजत्रातिक, ९.२२
प्रायः साधुलोकः । प्रायस्य यस्मिन् कर्मणि चित्त' तत्प्रायश्चित्तम्... अपराधो वा प्रायः । चित्तशुद्धिः प्रायस्य वित्त प्रायश्चित्तम् । अपराधविशुद्धिरित्यर्थः, वही ९.२२ प्रायः पापविनिर्दिष्ट चित्त तस्य विशोधनम्, चर्म सग्रह ३; पाव छिदइ जम्हा प्रायच्छित्त त्ति भण्णइ तेण, पचाशक सटीक विवरण, १६.३
प्रायः इत्युच्यते लोकश्चित्त' तस्य मनोभवेत् ।
तच्चित्तग्राहकं कर्म प्रायश्चित्तमिति स्मृतम् ॥ १३.५ ४.२६.९
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