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प्रायश्चित्त : स्वरूप और विधि
२११ पंचाशक में दस कल्पोंका वर्णन मिलता है जिनमें प्रतिक्रमण भी है । कल्प का तात्पर्य है साधुओं का अनुष्ठान विशेष अथवा आचार।" ३. तदुभय
कुछ दोष आलोचना मात्रसे शुद्ध होते हैं, कुछ प्रतिक्रमण से तथा कुछ दोनों से शुद्ध होते हैं, यह तदुभय है। जैसे एकेन्द्रिय जीवों का संस्पर्श, दुःस्वप्न देखना, केशलुचन, नखच्छेद, स्वप्नदोष, इन्द्रिय का अतिचार, रात्रिभोजन आदि । ४. विवेक
विवेक का तात्पर्य है त्याग । आधाकर्म आदि आहार आ जाने पर उसे छोड देना विवेक प्रायश्चित्त है। . ५. व्युत्सर्ग
नदी, अटवी आदि के पार करने में यदि किसी तरह का दोष आ जाता है तो उसे कायोत्सर्ग पूर्वक विशुद्ध कर लिया जाता है । अनगारधर्मामृत तथा भावपाहुड में एसे अपराधों की एक लम्बी सूचि दी है जिसके लिए व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त करना आवश्यक माना गया है । इसे कायोत्सर्ग भी कहा जाता है। इसमें श्वास का नियमन कर समता का भावन किया जाता है । इससे अनासक्ति और निर्भयता का विकास होता है जो आत्मसाधना के लिए आवश्यक
६. तप
अनशन, अवमोदर्य आदि तप हैं । यह तप प्रायश्चित्त सशक्त और सबल अपराधी को दिया जाता है। बार-बार अपराध करने पर चिर प्रव्रजित साधु की अमुक दिन, पक्ष और माह आदि की दीक्षा का छेद करना छेद है। इससे साधु व्यवहारतः अन्य साधुओं से छोटा हो जाता है । मूल प्रायश्चित्त उसे दिया जाता है जो पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील और स्वच्छन्द हो जाता है अथवा उद्गम आदि दोषों से युक्त आहार, उपकरण, वसति आदि का ग्रहण करता
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