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________________ प्रायश्चित्त : स्वरूप और विधि डॉ. पुष्पलता जैन, नागपुर प्रायश्चित्त साधक और साधना की विशुद्धि से सम्बद्ध, आंतरिक चेतना से उद्भूत एक पवित्र आभ्यन्तर तप है जो किसी चारित्रिक दोष से मुक्त होने के लिए किया जाता है। साधना की निश्छलता और अकृत्रिमता साधक की अन्यतम विशेषता है । यह विशेषता यदि किसी भी कारणवश खंडित होती है तो साधक पवित्र मन से उसे स्वीकार कर पुनः अपनी स्वाभाविक स्थिति में वापिस पहुँच जाता है। वापिस जाने की इसी प्रक्रिया को प्रायश्चित्त कहा जाता है प्रमादजन्य दोषों का परिहार, भावों की निर्मलता, निःशल्यत्व, अव्यवस्थानिवारण, मर्यादा का पालन, संयमकी दृढता, आराधना सिद्धि आदि उद्देश्य प्रायश्चित्त की पृष्ठभूमि में होते हैं ।' ___ आचार्यों ने प्रायश्चित्त के संदर्भ में प्रायः के चार अर्थ किये हैं (१) अपराध (२) लोक (३) प्राचुर्य और (४) तपस्या । अकलंक और धर्मसंग्रहकार ने 'प्रायः' का अर्थ अपराध करके प्रायश्चित्त को अपराध शोधन का एक साधन माना है । धवला में इसे लोकवाचक मान ऐसी प्रक्रिया का रूप कहा गया है जिससे साधी और संघ में रहनेवाले लोगों का मन अपनी ओर से विशुद्ध हो जाये । प्राचुर्य अर्थ होने पर इसका तात्पर्य है-चित्त की अत्यंत निवि कार अवस्था" और जब उसका अर्थ तपस्या होता है तब प्रायश्चित्त का संबंध तपस्या से संयुक्त चित्त हो जाता है। जैनाचार्यों ने प्रायश्चित्त के अर्थ को निश्चयनय और व्यवहारनय की दृष्टि से भी स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है । निश्चयनय में प्रायश्चित्त का ऐसा उत्कृष्ट स्वरूप प्रतिध्वनित होता है जिसमें साधक ज्ञानस्वरूप आत्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001431
Book TitleJain Agam Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1992
Total Pages330
LanguagePrakrit, Hindi, Enlgish, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & agam_related_articles
File Size18 MB
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