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कु. रीता बिश्नोई प्रकृतिकी विषमता के कारण पृथक् हुए साधु की अपेक्षा से कहा गया हैं, न कि सभी साधुओं के लिए। कुछ साधक अकेले रह कर भी अपना आत्मविकास करते हैं और आगमकार भी उन्हें अकेले विचरने की आज्ञा देते हैं । दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र में एकाकी विहारी सामाचारी का विस्तार से वर्णन मिलता है ।
यद्यपि नैदिक धर्मसूत्रो में वर्णित यति (सन्यासी) की आचार संहिता और जैनागमो में वर्णित मुनिकी आचार-चर्या में काफी समानता दृष्टिगोचर होती है तथापि कुछ भिन्नतायें भी दृष्टिगोचर होती है यथा
वैदिक गौतमधर्मसूत्र'', बोधायन धर्मसूत्र और आपस्तम्बधर्मसूत्र में बतलाया गया है कि केवल वैदिक मन्त्रोंके जपको छोड कर यतिको साधारणत: मौन ही रहना चाहिये । यहाँ वैदिक मन्त्रोंका जाप करना वैदिक धार्मिक भावनाका प्रतीक है।
वशिष्ठ धर्म सूत्र अनुसार संन्यासीको अपने नाखून, बाल एवं दाढी कटा लेनी चाहिये किन्तु गौतमने विकल्प भी दिया है अर्थात् वह चाहे तो मुण्डित रहे या जटा रखे । जैनागम कल्पसूत्र (पर्युषणाकल्प) के सामाचारी नामक अन्तिम प्रकरणमें यह उल्लेख है कि पर्युषणाके बाद अर्थात् वर्षा ऋतुके पचास दिन व्यतीत होने पर निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीको सिर पर गो-लोम-प्रमाण अर्थात् गायके बाल जितने केश भी नहीं रखने चाहिये। कैचीसे अपना मुण्डन करानेवालेको एक महीनेमें तथा लोचसे मुण्ड होनेवालेको (हाथो से बाल उस्वाड कर अपना मुण्डन करनेवालेको) 6 महीनेमें मुण्ड होना चाहिये ।
वैदिक धर्मसूत्रके अनुसार तपस्वियोंके लिये चार प्रकारकी क्रियायें हैंध्यान, शौच, भिक्षा एवं एकान्तशीलता (सदा अकेले रहना) । नारदके अनुसार यतियों के लिए 6 प्रकारके कार्य राजदण्डवत् अनिवार्य माने गये हैं-१ भिक्षाटन २. जप ३. ध्यान, ४. स्नान ५. शौच एवौं ६. देवार्चन ।
जैनागममे मुनि आचारचाँमे षडावश्यकका वर्णन किया गया है और उनके नाम इस प्रकार बतलाये गये हैं-सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वन्दना,
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