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जैनागम एवं उपनिषट् : कुछ समानताएँ
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जीव तथा आत्मा । जीव वह है जो बन्धन में है तथा आत्मा वह है जो स्वतन्त्र है । आत्मा को परमात्मा भी कहते हैं। आत्मा और ब्रह्म में कोई अन्तर नहीं होता है।
जीव चैतन्य होता है यह सर्वविदित एवं सर्वमान्य है । इस सम्बन्ध में जैनागम एवं उपनिषद् अपवाद नहीं हो सकते । ये दोनों मानते हैं कि जीव में चेतना होती है । भगवतीसूत्र में यह कहा गया है कि जो जीव होता है वह निश्चित रूप से चैतन्य होता है तथा जो चैतन्य होता है वह निश्चित रूप से जीव होता है । उमास्वाति ने भी कहा है कि जीव का लक्षण उपयोग है। अर्थात् जीव में चेतना होती है । जीव स्वप्रकाशित तथा स्वप्रमाणित होता है । अपने लिए उसे किसी अन्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती है । ऐसे ही अपने को प्रमाणित करने के लिए उसे किसी दूसरे प्रमाण की जरूरत नहीं होती है । उपनिषद् का आत्मा भी विशुद्ध चेतना वाला होता है । वह स्वप्रकाशित तथा स्वप्रमाणित होता है। इतना ही नहीं बल्कि जैनागम तथा उपनिषद् के जीव स्वभावतः पर-प्रकाशक भी होते हैं ।
जीव में पाई जाने वाली चेतना हमेशा एक जैसी नहीं रहती है। उसमें हास और विकास देखे जाते हैं जिनके कारण जीव के विभिन्न प्रकार या स्तर बनते हैं । भगवतीसूत्र में कहा गया है कि जब हम आत्मजागरण पर विचार करते हैं तो नारकी जीवों को सुप्त स्थिति में पाते हैं, जागने की स्थिति में नहीं। सोने और जागने में तो निश्चित ही चेतना के स्तर बदल जाते हैं। इसके अतिरिक्त जब हम जीव के पाँच भावों पर विचार करते हैं तो वहाँ भी चेतना के परिवर्तनशील अस्तित्व का बोध होता है-औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक तथा पारिणामिक । औदयिक चेतना के हास की स्थिति है तथा औपशमिक,क्षायोपशमिक,क्षायिक आदि क्रमशः विकास की स्थितियाँ हैं । माण्डूक्य उपनिषद् में आत्मा की चार अवस्थाएँ बताई गयी हैं जिनसे चेतना का विकास जाना जाता है । वे हैं :--- जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तथा तुरीय । जाग्रत अवस्था
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