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________________ 145 जिनेन्द्र कुमार जैन वाला विराधक होता है, उसे बोधि दुर्लभ होती हैं और उसका अनंत संसार बढ जाता है । वाल्पंडित मरण में श्रावक तीन शल्यों का त्याग करके घरमें ही मरण करता है । तथा पंडित मरण में जीव आहार आदि का त्याग कर, जिनवचन में दृढ श्रद्धा रखते हुए आराधक होकर तीसरे भव में मुक्ति को प्राप्त करते हैं । आचार्यों ने संलेखना के २ भेद बताए हैं-आभ्यन्तर एवं बाल । कषायों को कृश करना आभ्यन्तर एवं शरीर को कृश करना बाल संलेखना है। भगवती आराधना में आराधना के साथ संलेखना का वर्णन करते हुए कहा गया है कि मरणकाल से भिन्न काल में रत्नत्रय का पालन करने पर भी यदि मरणकाल में उसका आराधन न किया जाये तो मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। मृत्युकाल की आराधना ही यथार्थ आराधना है । मृत्यु काल में विराधना करने पर जीवन भर की आराधना निष्फल हो जाती है । अतः मरते समय जो आराधक सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप की यथार्थ आराधना करता है उसी की आराधना वास्तव में सफल होती है । यहां विद्वानोंने प्रश्न किया है कि अन्य काल में चारों आराधनाओं का आराधन न करने पर भी मरणकाल में इनका आराधन करने से यदि मुक्ति की प्राप्ति होती है तो क्या मरण काल में आराधित आराधना ही मोक्ष का कारण हुआ ? इसका उत्तर श्री अपराजितसूरि ने अपनी विजयोदयाटीका में देते हुए कहा है कि मरणकाल में रत्नत्रय की जो विराधना है वह संसार को बहुत दीर्घ करती है (सांसारिक-मुक्ति नहीं होती) किन्तु अन्य काल में विराधना होने पर भी मरते समय रत्नत्रय को धारण करने पर संसार का उच्छेद होता ही है, अत: मरणकाल में सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तपकी आराधना करना चाहिए । इस प्रकार भगवती आराधना एवं प्रकीर्णकों में सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप रूप चतुष्टय आराधनाओं को मोक्ष-प्राप्ति का साधन कहा है । जो व्यक्ति वास्तविक रूप से इन चारों की आराधना अपने जीवन में या जीवन के अन्तिम समय में करता है, वह मोक्ष रूपी लक्ष्मी का वरण अवश्य ही करता है। तथा सांसारिक आवागमन के बन्धन से मुक्त हो परमसद्गति को प्राप्त होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001431
Book TitleJain Agam Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1992
Total Pages330
LanguagePrakrit, Hindi, Enlgish, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & agam_related_articles
File Size18 MB
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