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________________ 144 भगवती आराधना एव' प्रकीर्णको में आराधना का स्वरूप में अनुरक्त रहते हैं और धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल तथा जीव का श्रद्धान करते हैं उनके दर्शन-आराधना होती है। चारित्र विहीन सम्यग्दृष्टि तो (चारित्र धारण करके ) सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं, किन्तु सम्यग्दर्शन से रहित (जीव ) सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते । सम्यग्दर्शन युक्त शास्त्र-ज्ञान, व्यवहार-ज्ञान है और रागादि की निवृत्ति में प्रेरक शुद्धात्मा का ज्ञान, निश्चय सम्यग्ज्ञान हैं ।४१ जिससे तत्त्व का ज्ञान होता है, चित्त का निरोध होता है तथा आत्मा विशुद्ध होती है उसी को जिन-शासन में ज्ञान कहा गया है। संसार के कारणभूत कर्मों के बन्ध के लिए जो क्रियाएं हैं उनका निरोध कर शुद्ध आत्म स्वरूप का लाभ करने के लिए जो सम्यग्ज्ञान पूर्वक प्रवृत्ति है उसे सम्यक् चारित्र या संयम कहते हैं। सम्यक् चारित्र की आवश्यकता को बताते हुए कहा गया है कि सम्यग्- .. दर्शन से रहित साधक उत्कृष्ट चारित्र की साधना करने के बावजूद भी कर्मा की उतनी निर्जरा नहीं कर पाता जितनी कि सम्यग्दृष्टि साधक स्वल्प साधना से कर लेता है। इसलिए संसार रूपी भवसमुद्र को पार करने के लिए सम्यग्दर्शन पूर्वक अणुव्रत-महाव्रत रूपी चारित्र की आराधना आवश्यक है । इच्छाओं का निरोध या संयम तप कहलाता है ! जो ८ प्रकार के कर्मों को तपाता हो या भस्मसात् करने में समर्थ हो उसे तप कहते है । कपायों का निरोध, ब्रह्मचर्य का पालन, जिनपूजन तथा अनशन आदि करना तप कहलाता हैं । अतः इन चारों की आराधना करने से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। आतुर प्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा एवं मरणसमाधि इन चारों प्रकीर्णको में एवं भगवती आराधना में आराधना के स्वरूप के साथ-साथ संलेखना द्वारा मरणसमाधि का भी विस्तृत विवेचन किया गया है । भगवती आराधना में पंडित-पंडित मरण, पंडित मरण, बाल-पंडित मरण, बाल-मरण और बाल-बाल मरण ये मरण के पाँच भेद किए गए है । जव कि प्रकीर्णको में बालमरण, बाल्पंडितमरण एवं पंडितमरण ये तीन भेद ही बताए गये हैं ।४७ वालमरण मरने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001431
Book TitleJain Agam Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1992
Total Pages330
LanguagePrakrit, Hindi, Enlgish, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & agam_related_articles
File Size18 MB
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