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सत्तरिमो संधि
चत्ताओहणु दुजोहणु ताम पासु गउ कण्णहो। पइ-मि सुमित्तेण जियंतेण अकुसल-कउरव-सेण्णहो॥
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अहो अमर-धराधर-धीर-चित्त रक्खेवा कुरु पइं परम-मित्त मारेवा पंच-वि पंडु-पुत्त सिणि-णंदण-हरि-वलएव-जुत्त मच्छाहिव वेइ व कइकया-वि पंचाल-वि सोमय-सिंजया-वि तं णिसुणेवि पभणइ अंगराउ किं करहिं जियंतें मइ विसाउ सुणु कुरुवइ सव्व णरिंद पवर पढमज्जुणु पच्छइ हणमि अवर परमत्थें पिसुणहं सिरई लेमि तउ वसुमइ णीसावण्ण देमि चंपाहिव-वयणेहिं किउ पलित्तु णं चित्तभाणु दुप्पवण-छित्तु मुहे दुम्मुह किह णीसरिय वाय जिह मारमि पंच-वि पंडु-जाय
घत्ता एक्के पत्थेण लहु-हत्थेण सिंधव-वहि किय-तज्जिय। समर-भडुज्जय ते दुजय पंच-वि केण परज्जिय ॥
[२] भणु कहिं ण भगु तुहुं अज्जुणेण तिण-कट्ठ-णिवहु जिह फग्गुणेण दोमइहे सयंवरे इक्क-वार जिउ उत्तर-गोग्गहे तिण्णि-वार भीमेण भग्ग रह सत्त-वार छिण्णइं धणुहरइं अणेय-वार सिंधवहो पत्थे एक्क-वार सिणि-णंदणेण अण्णेक्क-वार वेयारिउ कुरुवइ वहुय-वार जिह मारमि पंडव दुण्णिवार तो वुच्चइ चंप-पुरेसरेण गज्जेवउ पाउसे जलहरेण अहि-भक्खणे गरुड-विहंगमेण मय-काले मत्त-तंवेरमेण करि-कुंभ-दलणे पंचाणणेण पडिवक्ख-समागमे भडयणेण
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