________________
१५९
असीइमो संधि
घत्ता तेरह वरिसइं जो करुणु महारसु धरियउ। णयण-पवाहें एवंहिं सो णीसरियउ।
[१५] रुण्ण वे-वि कइ-केयण-राणा आहव-कणएं दुज्झर-माणा रुण्ण वे-वि स-जउहर-जूयई दुक्खइं जाई आसि अणुहूयइं रुण्ण विचित्तई विहियाहम्मई कियइं जाई घरे मच्छहो कम्मई रुण्ण मइंतावतुत्तर-दुक्खें(?) रुण्णइं हएण पियामह-रुक्खें रुण्ण सुहद्दाणंदण-सोएं रुण्ण हिडिवा-सुयहो विओएं रुण्ण विराड-दुमय-सिर-छेएं रुण्णायरिय-पंडि-उव्वेएं रुण्णा ताव जाव अविसायहो णिग्गय कह-वि वाय मुहे रायहो णंद वद्ध जय जीव धणंजय महु महि देहि सुरारि-पुरंजय
घत्ता एम विसज्जिउ गउ देवयत्त-रहे चडियउ। दीसइ कण्णहो णं विजु-पुंजु सिरे पडियउ॥
४
८
वोल्लाविउ अज्जुणेण जणद्दणु तिह करि जिह हम्मइ रवि-णंदणु जंपइ जायव-णाहु तुहारी एह जे महु वि चिंत वड्डारी दुज्जउ कण्णु होइ समरंगणे तुज्झु मल्ल पुणु को-विण तिहुअणे एम पसंस करेवि सेयासहो पुणु वोल्लाविउ गुरु कुरु-वंसहो णरेण णरिंद जइ-वि अहिक्खित्तउ तो-वि तिह करे जिह जाइ सइत्तउ तो हक्कारिउ पंडव-णाहें परिवड्डिय-महंत-उच्छाहें अवलंडिउ परिचुंविउ मत्थए हणु रवि-णंदणु तवणे अणत्थए 'होहि किरीडि-मालि अजरामरु ___णामु पसज्झिउ खंडव-डामरु
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org