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छप्पण्णमो संधि
रणउहे उत्तर-कंतेण णिवडियई तिणि णिवडतेण । दारुणु दुक्खु सुहदहे सुक्खु सुमइ(१) मरणु जयबहे ॥१
[१] पिह-णंदण-णंदणु समर-हउ नं दिगमणि दिण-पहराहिहउ णं सायर-सोउ समाडिउ णं सग्गहो सुर-कुमारु पडिउ कुरु-वले उब्भियइं महा-धयई किउ कलयलु तूरइं आहयई दुज्जोहण-दोणहं विजउ हुउ उच्छलिय वत्त अहिमण्णु मुउ ४ जो जहि णिसुगइ सो तहिं रुवइ उक्कंठुलु गरुय धाह मुअइ सउहद महंतहो दुम्मइहे किह सीसु ण फुटु पयावइहे कहिं तणिय सुहहहे अज्जु दिहि उग्वइय चक्खु दक्खवेवि णिहि पिह-सुयहं पलोट्टिय माण-सिह ण जाणहुं होसइ कुरुहुँ किह ८
घत्ता
इत्तिउ सउरि सहेज्जउ लग्गइ कुढे णिय तोयहो
विक्कम-धणु स-धणु धणंजउ । कर जीविउ कउरव-लोयहो ॥ ९
जं पत्थ-पुत्त गउ धरणियलु सयमेव जुहिट्ठिलु धीर-मइ अम्हेहिं जोणेवउं एउ रणु तहिं काले तमंधयारु भमिउ
हरिछ-१
[२]
तं कुरुवेहि पेल्लिउ पंडु-बलु भजंति-वि वाहिणि धीरवइ कउरवहं पराइउ धुउ मरणु अहिमण्णु जेवं रवि अत्थमिउ
४
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