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हैं । अर्जुन अपने पुरुषार्थ द्वारा द्रुपद को जीतकर द्रोणाचार्य को समर्पित करता है । द्रोण का अर्जुन सदा के लिए विशेष कृपापात्र बन जाता है। कवि का आरंभ से ही धर्मरत पाण्डवों के प्रति प्रशंसा का भाव दिखाई पड़ता है। पाण्डवों के पति कवि के सदय होने का एक कारण है कि पाण्डु और युधिष्ठिर जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित मागे के अनुयायी हैं । __सो धम्मपुत्तु सयमेव धम्मु, जसु तणउं अमाणुस चरिउ कम्मु ।
गंगेउ दोणु किउ विउरु जासु, महिमंडलु अवसे होइ तासु ॥ १७.१२.५.९ 'वह धर्मपुत्र स्वयं धर्म है, उसका चरित्र और कर्म अमावीय है',......भीष्म, द्रोण, कृप, विदुर जिसके हैं, अवश्य ही महीमंडल उसका होगा ।' स्वयंभू ने पूरे काण्ड में पांडवों के सम्यक्-चरित्र-संपन्न होने का बराबर उल्लेख किया है । कौरवों के कायर व्यवहार का दुष्परिणाम उन्हें मिलता है, प्रत्येक बार वे पराजित होते हैं और प्रत्येक विषम परिस्थिति में से अपने सदव्यवहार के कारण पाण्डव विजयी होकर निकलते हैं ।
नगर, वन, उपवन, अरण्य, नदियों, आदि के मनोरम काव्यमय शब्दचित्र कवि ने प्रस्तुत किए हैं। ये वर्णन कथा की पृष्ठम् के रूप में अंकित किए गए हैं। ऐसे ही वर्णनों में से एक वर्णन है वारणावत नगर का (संधि १८)। कपटपूर्वक दुर्योधन पाण्डवों को वारणावत भेजने की व्यवस्था करवाता है । अनिच्छापूर्वक पाण्डव माता कुंती समेत वारणावत के लिए प्रस्थान करते हैं । कुंती का विषाद वास्तविक है, भीष्म के चरणो में पड़कर वह कहती है
___ लइ सहुपुत्तेहिं जाम भडारा, दूरी हवा चलण तुहारा । १८.५.२
'महानुभाव । पुत्रों सहित जा रही हूँ, तुम्हारे चरणों से दूर हो रहे हैं।' पूरा प्रसंग रामायण के रामरावन का स्मरण करा देता हैं । वयोवृद्ध तथा नगरवासी पाण्डवों के जाने से दुःखी हैं, सब साथ चलते हैं, बहु समझाने पर लौटते हैं और सभी यह कामना करते हैं कि राज्य पाण्डवों को ही प्राप्त हो ।
जणु पल्लट्टिउ कह-व किलेसेहि, धाहाविउ भविएहि असेसेहिं ।
सासण-देवय एम करिज्जहि, रज्जु पंडु-णंदण हुं जे देज्जहिं । पाण्डव शांतिभट्टारक का स्मरण करते हुए नगर से चले जाते हैं । लाक्षागृह में पाण्डव नहीं जलते, दुर्योधन का दुष्ट प्रपंचपरायण पुरोहित पुरोचन ही भस्म हो
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