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निवेदन
महाकवि स्वयंभू विद्यार्थीजीवन से ही मेरे अत्यंत प्रिय कवि रहे हैं । अपभ्रंश को उन्होंने काव्य-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया । तत्कालीन लोगजीवन के वे अद्भुत चित्रकार थे । उनकी काव्यकृतियों के विषय रामायण और महाभारत से लिए गए हैं, कविने प्राचीन विषयों के साथ समसामयिक समाज से भी सामग्री लेकर कृतियों को और अधिक लोकरंजक बनाया है । वे मौलिक चिंतक थे । भारतीय संस्कृति और प्राचीन परंपरा से वे पूर्ण परिचित थे और इसका रिट्ठणेममिचरि के अनेक प्रसंगों से परिचय मिलता है ।
प्राकृत टैक्स्ट सोसायटी के संपादकों में से स्व. डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल मेरी अपभ्रंश काव्य में रुचि से परिचित थे । मेरे एक पत्र के उत्तर में उन्होंने लिखा था, काशी विवि. १४-४-६०
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प्रिय श्री रामसिंहजी,
६-४-६० का पत्र मिला । हम 'हरिवंश' और 'सुदर्शनचरित' को हिन्दी अनुवाद और शब्दकोश के साथ ही छापना चाहेंगे । प्रेसकापी उसी प्रकार तैयार करें ।
प्राकृत भाषा और अपभ्रंश भाषा के दो बड़े कोश भी हमें चाहिए । प्राकृत के लिये अभी 'पाइससद्द म्हण्णव' को ही चुन लिया है । आप पहले अपभ्रंश का एक बड़ा कोश हमारे लिये बनादे । यह आपकी महत्त्वपूर्ण सेवा होगी । सोसाइटी उसे तत्काल मुद्रित करा सकेगी । मैं आपके पत्र की और इस उत्तर की प्रतिलिपि भी सोसाइटी के मंत्री श्री दलसुखभाई के पास अहमदाबाद भेज रहा हूँ ।
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भवदीप, ह. वासुदेवशरण
मुझे बड़ा पश्चात्ताप होता है कि अनेक कार्यों में व्यस्त रहने के कारण तथा प्रमाद के कारण ये कार्य पूरे करने में मैं तत्पर न हो सका । जब मैंने 'रिट्ठणेमिचरिउ' का एक अंश सोसाइटी को भेजा तो इस बीच यादवकाण्ड भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुका था । इसी से कुरुकाण्ड से प्रकाशन आरंभ हुआ है । अपभ्रंश
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