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________________ धर्मपरीक्षा-४ 3 कुरङ्गीवदनाम्भोजं स्नेहादित्यप्रबोधितम् ' । तस्यावलोकमानस्य स्कन्धावारो ऽभवत्प्रभोः ३ ॥५९ विषयस्वामिनेाहूय भणितो बहुधान्यकः । स्कन्धावारं व्रज क्षिप्रं सामग्रीं त्वं कुरूचिताम् ॥ ६० सनत्वैवं करोमीति निगद्य गृहमागतः । आलिङ्ग्य वल्लभां गाढमुवाच रहसि स्थिताम् ॥६१ कुरङ्गि तिष्ठ गेहे त्वं स्कन्धावारं व्रजाम्यहम् । स्वस्वामिनां हि नादेशो लङ्घनीयः सुखार्थभिः ॥६२ कटकं मम संपन्नं स्वामिनस्तत्र सुन्दरि । अवश्यमेव गन्तव्यं परथा कुप्यति प्रभुः ॥६३ आकर्येति वचस्तन्वी सा बभाषे विषण्णधोः । मयापि नाथ गन्तव्यं त्वया सह विनिश्चितम् ॥६४ शक्यते सुखतः सोढुं प्लोषमाणो ' विभावसुः । वियोगो न पुनर्नाथ तापिताखिलविग्रहः ॥६५ ५९) १. विकसितम् । २. कटकम् । ३. राज्ञः । ६०) १. देशाधिपेन । ६४) १. व्याकुलधीः । ६५) १. दह्यमानो । २. क अग्निः । बहुधान्यकके अनुरागरूप सूर्यके द्वारा विकासको प्राप्त हुए उस कुरंगीके मुखरूप कमलका अवलोकन करते हुए राजाके कटकका अवस्थान हुआ ||५९ ॥ तब उस देशके राजाने बहुधान्यकको बुलाकर उससे कहा कि तुम कटकमें जाओ और समुचित सामग्रीको तैयार करो ||६० ॥ उस समय वह राजाको नमस्कार करके यह निवेदन करता हुआ कि मैं ऐसा ही करता हूँ, घर आ गया । वहाँ वह एकान्तमें स्थित प्रियाका गाढ़ आलिंगन करके उससे बोला कि हे कुरंगी ! तू घरमें रहना, मैं कटकमें जाता हूँ, क्योंकि जो सुखकी इच्छा करते हैं उन्हें कभी अपने स्वामीकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं करना चाहिए ॥ ६१-६२॥ Jain Education International ६५ हे सुन्दरी ! मेरे स्वामीका कटक सम्पन्न है, मुझे वहाँ अवश्य जाना चाहिए, नहीं तो राजा क्रोधित होगा ||६३ || बहुधान्यकके इन वचनों को सुनकर वह कृश शरीरवाली कुरंगी खिन्न होकर बोली कि हे स्वामिन्! तुम्हारे साथ मुझे भी निश्चयसे चलना चाहिए || ६४॥ हे नाथ ! कारण इसका यह है कि जलती हुई अग्निको तो सुखसे सहा जा सकता है, किन्तु समस्त शरीरको सन्तप्त करनेवाला तुम्हारा वियोग नहीं सहा जा सकता है || ६५ || ६१) व मत्वैवं अनिवेद्य । ६२ ) क ड स्कन्धावारे । ६३ ) इ नान्यथा । ६५) ब विभासुरः । ९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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