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________________ अमितगतिविरचिता करणस्येतिवाक्येन बबन्धुस्तं कुटुम्बिनः । अश्रद्धेयवचोवादी बन्धनं लभते न कः ॥१८ केनापि करुणाट्टैण तत्रावादि कुटुम्बिना। अनुरूपो' ऽस्य दोषस्य दण्डो भद्र विधीयताम् ॥१९ वर्तुला' वर्तुले ऽमुष्य दीयतामष्ट मूर्धनि । उपहासं पुनर्येन न कस्यापि करोत्यसौ ॥२० तस्येतिवचनं श्रुत्वा विमुच्यास्य कुटुम्बिभिः । वर्तुला मस्तके दत्ता निष्ठुरा निघणात्मभिः ॥२१ यत्त्यक्तो वर्तुलैरेभिर्लाभो ऽयं परमो मम। जीवितव्ये ऽपि संदेहो दुष्टमध्ये निवासिनाम् ॥२२ विचिन्त्येति पुन तो निजं देशमसौ गतः। बालिशा न निवर्तन्ते कदाचिदकथिताः ॥२३ १८) १. क अश्रद्ववचन ; अणगमतावचोवादी। १९) १. सदृशः। २०) १. मुष्टयः । २. क मस्तके। २१) १. क दयारहितैः । २२) १. कुटुम्बिभिः । २३) १. अज्ञानिनः ; क मूर्खाः । २. व्याघुटन्ते । ३. अपीडिताः । इस प्रकार उस अधिकारीके कहनेसे किसानोंने उस मधुकरको बाँध लिया। ठीक ही है-अविश्वसनीय वचनको बोलनेवाला ऐसा कौन-सा मनुष्य है जो बन्धनको न प्राप्त होता हो ? ॥१८॥ उस समय वहाँ कोई एक दयालु किसान बोला कि हे भद्र ! इस बेचारेको इसके अपराधके अनुसार दण्ड दिया जाये ॥१९॥ इसके गोल शिरके ऊपर आठ वर्तुला (मुक्के) दी जावें, जिससे कि वह फिर किसीकी भी हँसी न करे ॥२०॥ उसके इस वचनको सुनकर उन किसानोंने उसे बन्धनमुक्त करते हुए मस्तकपर कठोर आठ वर्तुलाएँ दे दीं ॥२१॥ ___ इन लोगोंने जो मुझे इन आठ वर्तुलोंके साथ छोड़ दिया है, यह मुझे बहुत बड़ा लाभ हुआ। कारण यह कि जो लोग दुष्टजनोंके मध्य में रहते हैं। उनके तो जीवनके विषयमें भी सन्देह रहता है, फिर भला मुझे तो केवल आठ मुक्के ही सहने पड़े हैं ।।२२।। यही विचार करके वह भयभीत होता हुआ अपने देशको वापस चला गया। ठीक ही है-मूर्ख जन कभी कष्ट सहनेके बिना वापस नहीं होते हैं ॥२३॥ १९) अ दण्डस्य, ब दग्धस्य for दोषस्य; अब भद्रा। २०) इ वर्तुले मुष्ट्या। २१) क ड इ विमुञ्चास्य; कड इ निर्दयात्मभिः । २२) ड तव्येति'; ब मध्यनिवासिनां । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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