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________________ ३३२ अमितगतिविरचिता वामनः पामनो' मूको रोमशः कर्कशः शठः । दुर्भगो दुर्जनः कुष्टी जायते रात्रिभुक्तितः ॥७ कोविदः कोमलालापो नीरोगः सज्जनः शमी। त्यागी भोगी यशोभागी सागरान्तमहीपतिः ॥८ आदेयः सुभगो वाग्मी मन्मथोपमविग्रहः। निशाभुक्तिपरित्यागी मर्यो भवति पूजितः ॥९ [ युग्मम् ] यामिनीभुक्तितो दुःखं सर्वत्र लभते यतः। दिवाभोजनतः सौख्यं दिनभुक्तिस्ततो हिता' ॥१० यो भुङ्क्ते दिवसस्यान्ते विवयं घटिकाद्वयम् । तं वदन्ति महाभागमनस्तमितभोजनम् ॥११ भुङ्क्ते नालीद्वयं हित्वा यो दिनाद्यन्तभागयोः । उपवासद्वयं तस्य मासेनैकेन जायते ॥१२ पञ्चम्यामुपवासं यः शक्लायां कुरुते सुधीः। नरामरश्रियं भुक्त्वा यात्यसौ पदमव्ययम् ॥१३ ७) १. कण्डूयमान । ९) १. प्रीतिकरः। १०) १. समीचीना। सर्प, बौना (कदमें छोटा), खुजली रोगवाला, गूंगा, अधिक रोमोंवाला, कठोर, मूर्ख, भाग्यहीन (घृणास्पद), दुष्ट और कोढ़से संयुक्त होता है ॥६-७॥ इसके विपरीत उस रात्रिभोजनका परित्याग कर देनेवाला मनुष्य विद्वान् , कोमल भाषण करनेवाला, रोगसे रहित, सज्जन, शान्त, दानी, भोगोंसे संयुक्त, यशस्वी, समुद्रपर्यन्त समस्त पृथिवीका स्वामी, उपादेय (प्रशंसनीय ), सुन्दर, सुयोग्य वक्ता और कामदेवके समान रमणीय शरीरवाला होता हुआ पूजाका पात्र होता है ।।८-॥ चूंकि प्राणी रात्रिभोजनसे सर्वत्र दुखको और दिनमें भोजन करनेसे सर्वत्र सुखको प्राप्त होता है, इसीलिए दिनमें भोजन करना हितकर है ॥१०॥ जो सत्पुरुष दिनके अन्तमें दो घटिकाओंको छोड़कर-सूर्यके अस्त होनेसे दो घटिका (४८ मिनट ) पूर्व ही-भोजन कर लेता है उस अतिशय पुण्यशाली पुरुषको अनस्तमितभोजी कहा जाता है ॥११॥ जो व्यक्ति दिनके प्रारम्भमें और अन्त में दो नालियों (७७ लव ) को छोड़कर शेष दिनमें भोजन करता है उसके इस प्रकारसे एक मासमें दो उपवास हो जाते हैं ।।१२।। जो बुद्धिमान् शुक्ल पंचमीके दिन उपवासको करता है वह मनुष्यों व देवोंकी लक्ष्मीको भोगकर शाश्वतिक ( अविनश्वर ) पदको-मोक्षको-प्राप्त होता है ॥१३।। ८) ब रान्तर्महीपतिः । १०) अ सुखं for यतः। ११) अ विपर्य for विवर्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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