SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 322
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०१ धर्मपरीक्षा-१० कल्याणाङ्गो महासत्त्वो नरामरनिषेवितः । ऊोभूय ततस्तस्थौ सुवर्णाद्रिरिव स्थिरः ॥४२ कृत्वा पटलिकान्तःस्थान् जिनेन्द्रस्य शिरोरुहान्। आरोप्य मस्तके शक्रश्चिक्षेप क्षीरसागरे ॥४३ प्रकृष्टोऽत्र कृतो योगो यतस्त्यागो जिनेशिना । शकटामुखमुद्यानं प्रयागाख्यां गतं ततः॥४४ चत्वार्यमा सहस्राणि भूपा जातास्तपोधनाः । सद्भिराचरितं कायं समस्तः धयते जनः ॥४५ षण्मासाभ्यन्तरे भग्नाः सर्वे ते नृपपुङ्गवाः। दीनचित्तैरविज्ञानः सह्यन्ते न परोषहाः॥४६ फलान्यत्तं प्रवृत्तास्ते पयः पातु दिगम्बराः। तन्नास्ति क्रियते यन्न बुभुक्षाक्षीणकुक्षिभिः ॥४७ ४३) १. रत्नपेटिकान्तःस्थान् । ४४) १. उद्याने। ४५) १. जिनेन सह। __तत्पश्चात् मंगलमय शरीरसे संयुक्त, अतिशय बलवान् तथा मनुष्य एवं देवोंसे आराधित वे भगवान् सुमेरुके समान स्थिर होकर ऊर्वीभूत स्थित हुए-कायोत्सर्गसे ध्यानमें लीन हो गये ॥४॥ उस समय सौधर्म इन्द्रने आदि जिनेन्द्र के उन बालोंको एक पेटीके भीतर अवस्थित करके अपने मस्तक पर रखा और जाकर क्षीर समुद्र में डाल दिया ॥४३॥ भगवान् आदि जिनेन्द्रने उस वनमें चूंकि महान त्याग व उत्कृष्ट ध्यान किया था, इसीलिए तबसे वह वन 'प्रयाग' के नामसे प्रसिद्ध हो गया ॥४४॥ भगवान आदि जिनेन्द्रके दीक्षित होनेके साथ चार हजार अन्य राजा भी दीक्षित हुए थे । सो ठीक भी है-सत्पुरुष जिस कार्यका अनुष्ठान करते हैं उसका आश्रय सब ही अन्य जन किया करते हैं ॥४५॥ । परन्तु वे सब राजा छह महीने के ही भीतर उस संयमसे भ्रष्ट हो गये थे । ठीक हैअज्ञानी जन मानसिक दुर्बलताके कारण परीषहोंको नहीं सह सकते हैं ॥४६॥ तब वे निर्ग्रन्थके वेपमें स्थित रहकर फलोंके खाने और पानीके पीनेमें प्रवृत्त हो गये। ठीक है-जिनका उदर भूखसे कृश हो रहा है वे बुभुक्षित प्राणी ऐसा कोई जघन्य कार्य नहीं है जिसे न करते हों-भूखा प्राणी हेयाहेयका विचार न करके कुछ भी खाने में प्रवृत्त हो जाता है ।।४७॥ ४२) अ ऊर्वीभूतस्ततः । ४३) पटलिकान्तस्तान् । ४४) अ इ प्रयोगाख्यं, ड प्रयोगाल्याम् । ४६) इरवज्ञानैः, सह्यते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy