SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 321
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०० अमितगतिविरचिता न किंचनात्र जीवानां श्वोवसीयसकारणम् । रत्नत्रयं विहायकं न परं विद्यते ध्रुवम् ॥३६ विचिन्त्येति जिनो गेहाद्विनिर्गन्तुप्रचक्रमे । संसारासारतावेदी कथं गेहे ऽवतिष्ठति ॥३७ आरूढः शिबिकां देवो मुक्ताहारविभूषिताम् । आनेतुं स्वयमायातां सिद्धभूमिमिवामलाम् ॥३८ उत्क्षिप्तां पार्थिवैरेतामग्रहीषुर्दिवौकसः। समस्तधर्मकार्येषु व्याप्रियन्ते महाधियः ॥३९ समेत्य शकटोद्यानं देवो वटतरोरघः। पर्यङ्कासनमास्थाय भूषणानि निराकरोत् ॥४० पञ्चभिर्मष्टिभिः क्षिप्रं ततो ऽसौ दृढमुष्टिकः। केशानुत्पाटयामास कृतसिद्धनमस्कृतिः॥४१ ३६) १. शाश्वतम्। ३९) १. शिबिकाम् । २. प्रवर्तन्ते । इस संसार में एक रत्नत्रयको छोड़कर और दूसरा कोई प्राणियोंके कल्याणका कारण नहीं है, यह निश्चित समझना चाहिए ॥३६॥ यही विचार करके जिन-भगवान् आदिनाथ तीर्थकर-गृहसे निकलने के लिए समर्थ हुए-समस्त परिग्रहको छोड़कर निर्ग्रन्थ दीक्षाके धारण करनेमें प्रवृत्त हुए । ठीक भी हैजो संसारकी निःसारताको जान लेता है वह घरमें कैसे अवस्थित रह सकता है ? नहीं रह सकता है ॥३७॥ वे भगवान् मोतियोंके हारोंसे सुशोभित जिस पालकीके ऊपर विराजमान हुए वह ऐसी प्रतीत होती थी जैसे मानो उन्हें लेनेके लिए स्वयं सिद्धभूमि ( सिद्धालय ) ही आकर उपस्थित हुई हो ॥३८॥ उस पालकीको सर्वप्रथम राजाओंने ऊपर उठाकर अपने कन्धोंपर रखा, तत्पश्चात् फिर उसे देवोंने ग्रहण किया-वे उसे उठाकर ले गये। ठीक है-धर्मके कामोंमें सब ही बुद्धिमान् प्रवृत्त हुआ करते हैं ॥३९।। इस प्रकारसे भगवान् जिनेन्द्र शकट नामके उद्यानमें पहुँचे और वहाँ उन्होंने वटवृक्षके नीचे पद्मासनसे अवस्थित होकर अपने शरीरके ऊपरसे भूषणोंको-सब ही वस्त्राभरणोंको पृथक कर दिया ॥४०॥ ___ तत्पश्चात् उन्होंने दृढ़ मुष्टिसे संयुक्त होकर सिद्धोंको नमस्कार करते हुए पाँच मुष्टियोंके द्वारा शीघ्र ही अपने केशोंको उखाड़ डाला-उनका लोच कर दिया ॥४१॥ ३६) अ विहायकमपरम् । ३८) अ ब क इ सिद्धिभूमि । ३९) अ ब समस्ता धर्म । ४१) व सिद्धि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy