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निरुत्तरांस्तथालोक्य खेटपुत्रौ द्विजन्मनः । निर्गत्य काननं यातौ भूरिभूरुहभूषितम् ॥१ आसीनौ पादपस्याधो मुक्त्वा श्वेताम्बराकृतिम् । सज्जनस्येव ननस्य विचित्रफलशालिनः ॥२ ऊचे पवनवेगस्तं जिघक्षुजिनशासनम् । मित्र द्विजादिशास्त्राणां विशेषं मम सूचय ॥३ तमुवाच मनोवेगो वेदशास्त्रं द्विजन्मनाम् । प्रमाणं' मित्र धर्मादविकृत्रिममदूषणम् ॥४ हिंसा निवेद्यते येने जन्मोर्वीरुहवधिनी। प्रमाणीक्रियते नात्रे ठकशास्त्रमिवोत्तमैः ॥५
२) १. स्वरूपम् । ३) १. ग्रहणस्य इच्छुः। ४) १. मान्यम् । २. धर्मकार्यादौ । ५) १. वेदेन । २. वेदशास्त्र ।
_इस प्रकारसे उन ब्राह्मणोंको निरुत्तर देखकर वह विद्याधरकुमार-मनोवेग-वहाँसे निकलकर बहुत-से वृक्षोंसे विभूषित उद्यानमें चला गया ॥१॥
वहाँ वे दोनों जटाधारक साधुके वेषको छोड़कर अनेक प्रकारके फलोंसे सुशोभित होनेके कारण सजनके समान नम्रीभूत हुए-नीचेकी ओर झुके हुए-एक वृक्षके नीचे बैठ गये ॥२॥
उस समय जैनमतके ग्रहण करनेकी इच्छासे प्रेरित होकर पवनवेगने मनोवेगसे कहा कि हे मित्र! तुम मुझे ब्राह्मण आदिके शास्त्रोंकी विशेषताको सूचित करो ॥३॥
इसपर मनोवेगने उससे कहा कि ब्राह्मणोंका अपौरुषेय वेदशास्त्र उनके द्वारा धर्मादिकमें- यज्ञादि क्रियाकाण्डके विषयमें-निर्दोष प्रमाण माना गया है ॥४॥
परन्तु चूंकि वह संसाररूप वृक्षको वृद्धिंगत करनेवाली हिंसाकी विधेयताको निरूपित करता है, अतएव उसे ठगशास्त्रके समान समझकर सत्पुरुष प्रमाण नहीं मानते हैं ।।५।।
१) इ निरुत्तरानथा; अ पुत्रो....यातो। २) अ मुक्त्वासी जटिलाकृतिम् । ५) अ इ तन्न for नात्र ।
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