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________________ २७३ धर्मपरीक्षा-१६ इन्द्राभिधाने विजिते खगेन्द्रे विनिजितं स्वर्गपति वदन्ति । महीयसां कं वितरन्ति' दोषं न दुर्जनाः सर्वविचारशून्याः ॥१०२ यः सेवनीयो भुवनस्य विष्णुः ख्यातस्त्रिखण्डाधिपतिर्बलीयान् । कथं स दूतो ऽजनि सारथिर्वा पार्यस्य भृत्यस्य निजस्य चित्रम् ॥१०३ मानसमोहप्रथनसमर्थ लौकिकवाक्यं जनितकदर्थम् । इत्थमवेत्यामितगतिवार्य शुद्धमनोभिर्मनसि न कार्यम् ॥१०४ इति धर्मपरीक्षायाममितगतिकृतायां षोडशः परिच्छेदः ॥१६॥ १०२) १. ददति । १०३) १. अर्जुनस्य। १०४) १. करणीयम् । रावणके द्वारा इन्द्र नामक विद्याधरोंके स्वामीके जीत लेनेपर अन्य कवि यह कहते हैं कि उसने इन्द्रको पराजित किया था। ठीक है-जो दुष्ट जन सब योग्यायोग्यके विचारसे रहित हैं वे महापुरुषोंके लिए किस दोषको नहीं देते हैं ? वे उनमें अविद्यमान दोषको दिखलाकर स्वभावतः उनकी निन्दा किया करते हैं ॥१०२।। विश्वके द्वारा आराधनीय जो प्रसिद्ध विष्णु अतिशय बलवान् व तीन खण्डका स्वामी-अर्धचक्री-था वह अपने ही सेवक अर्जुनका दूत अथवा सारथि कैसे हुआ, यह बड़ी विचित्र बात है ॥१०३॥ - इस प्रकार लोकप्रसिद्ध इन पुराणोंका कथन अन्तःकरणकी अज्ञानताके ख्यापित करने में समर्थ-अभ्यन्तर अज्ञानभावको प्रकट करनेवाला-होकर अनर्थको उत्पन्न करनेवाला है, इस प्रकार जानकर अपरिमित ज्ञानियों के द्वारा अथवा प्रस्तुत ग्रन्थके कर्ता अमितगति आचार्यके द्वारा उसका निवारण करना योग्य है। इसीलिए निर्मल बुद्धिके धारक प्राणियोंको उसे अपने मनके भीतर स्थान नहीं देना चाहिए-उसे प्रमाण नहीं मानना चाहिए ॥१०४॥ इस प्रकार आचार्य अमितगतिविरचित धर्मपरीक्षामें सोलहवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥१६॥ १०४) अ सिद्धि for शुद्ध । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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