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________________ २६३ धर्मपरीक्षा-१६ भ्राता ततो मया प्रोक्तो नष्टवा यावः कुतश्चन । निग्रहीष्यति विज्ञाय कोपिष्यति पितावयोः ॥३९ परं गतौ मरिष्यावः परदेशे बुभुक्षया । निलिङ्गो येन तेनावां भवावो भद्र लिङ्गिनौ ॥४० यष्टिकम्बलमुण्डत्वलक्षणं लिङ्गमावयोः। विद्यते श्वेतभिषणां सुखभोजनसाधनम् ॥४१ कुलेन सितवस्त्राणां यतो नौ भाक्तिकः पिता। श्वेतभिक्षु भवावो ऽतो नान्यलिङ्गःप्रयोजनम् ॥४२ इति ज्ञात्वा स्वयं भूत्वा श्वेताम्बरतपोधनौ। आयातौ भवतां स्थाने हिण्डमानौ महीवलम् ॥४३ ते प्राहुन विभेषि त्वं यद्यपि श्वभ्रपाततः। तथापि युज्यते वक्तु नेदृशं व्रतवर्तिनम् ॥४४ अभाषिष्ट ततः खेटो धृतश्वेताम्बराकृतिः। किं वाल्मीकिपुराणे वो विद्यते नेदृशं वचः॥४५ ४३) १. ज्ञात्वा। यह सुनकर मैंने भाईसे कहा कि तो फिर चलो भागकर कहीं अन्यत्र चलें। कारण कि जब पिताको यह ज्ञात होगा कि भेड़ें कहीं भाग गयी हैं तब वह हम दोनोंके ऊपर रुष्ट होगा व हमें दण्ड देगा ॥३९॥ परन्तु यदि किसी वेषको धारण करनेके बिना परदेशमें चलते हैं तो भूखसे पीड़ित होकर मर जायेंगे, अतएव हे भद्र ! इसके लिए हम दोनों किसी वेषके धारक हो जायें ॥४०॥ शरीरमें भस्म लगाना व कथड़ीके साथ नरकपालको धारण करना, यह कर्णमुद्रों (?) का वेष है जो हम दोनोंके लिए सुखपूर्वक भोजनका कारण हो सकता है ॥४१॥ पिता कुलमें तान्त्रिक मतानुयायी भिक्षुओंका भक्त है। अतः हम दोनों कापालिकवाममार्गी या अघोरपन्थी-हो जाते हैं, अन्य लिंगसे कुछ प्रयोजन नहीं है ॥४२॥ यह जान करके हम दोनों बृहस्पतिप्रोक्त चार्वाक मतानुयायी साधु बन गये व इस प्रकारसे पृथिवीपर घूमते हुए आपके नगरमें आये हैं ॥४३॥ मनोवेगके इस वृत्तको सुनकर ब्राह्मण बोले कि यद्यपि तुम नरकमें जानेसे नहीं डरते हो फिर भी जो व्रतमें स्थित हैं उन्हें इस प्रकारसे नहीं बोलना चाहिए ॥४४॥ __तत्पश्चात् कापालिकके वेषको धारण करनेवाला वह मनोवेग बोला कि क्या आप लोगोंके वाल्मीकिपुराणमें इस प्रकारका कथन नहीं है ॥४५॥ ४१) अ भस्मकन्थाकपालत्वलक्षणं....विद्यते कर्णमुद्राणसुख । ४२) अ कुले कोलकभिक्षूणां, इ कुलेन श्वेतभिक्षूणां; अ मे for नौ; अ कापालिको भवावो नौ। ४३) इ ध्यात्वा स्वयम्; अ बार्हस्पत्य for श्वेताम्बर; ब इ आयावो; अ ब स्थानम् । ४४) अ ब श्वभ्रयानतः; ब ड व्रतवर्तिनाम् । ४५) अ धृतकापालिकाकृतिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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