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________________ २६२ अमितगतिविरचिता सतः पालयितुं याते सोदयेऽस्मिन्नवीगणम् । दुरारोहं तमालोक्य कपित्थं चिन्तितं मया ॥३२ न शक्नोम्यहमारोढं दुरारोहे ऽत्र पावपे । खादामि कथमेतानि बुभुक्षाक्षीणकुक्षिकः ॥३३ स्वयं च सन्मुखं गत्वा विचिन्त्येति चिरं मया। छित्त्वा शिरो निजं क्षिप्तं सर्वप्राणेन पादपे ॥३४ यथा यथा कपित्यानि स्वेच्छयात्ति शिरो मम । महासुखकरी तृप्ति गात्रं याति तथा तथा ॥३५ विलोक्य जठरं पूर्णमधस्तादेत्य मस्तके। कण्ठे निःसंधिके लग्ने गतो द्रष्टुमवीरहम् ॥३६ यावत्ततो व्रजामि स्म कुमारमवलोकितुम् । तावच्छयितमद्राक्षं भ्रातरं काननान्तरे ॥३७ उत्थाप्य स मया पृष्टो भ्रातर्याताः कमेषिकाः। तेनोक्तं मम सुप्तस्य क्वापि तात पलायिताः ॥३८ ३२) १. गते । २. भ्रातरि । ३३) १. कपित्थानि। तदनुसार इस भाईके भेडसमूहकी रक्षाके लिए चले जानेपर मैंने उस कैथके वृक्षको चढ़नेके लिए अशक्य देखकर यह विचार किया कि यह वृक्ष चूंकि बहुत ऊँचा है, अत एव मेरा उसके ऊपर चढ़ना कठिन है, और जब मैं उसके ऊपर चढ़ नहीं सकता हूँ तब मैं भूखसे पीड़ित होकर भी उन फलोंको कैसे खा सकता हूँ ॥३२-३३।।। ___ इस प्रकार दीर्घकाल तक विचार करके मैंने स्वयं उसके सम्मुख जाकर अपने सिरको काट लिया और उसे सब प्राणके साथ उस वृक्षके ऊपर फेंक दिया ॥३४॥ वह मेरा सिर जैसे-जैसे इच्छानुसार उन कैंथके फलोंको खा रहा था वैसे-वसे मेरा शरीर अतिशय सुखको उत्पन्न करनेवाली तृप्तिको प्राप्त हो रहा था॥३५॥ इस प्रकारसे उन फलोंको खाते हुए मस्तकने जब देखा कि अब पेट भर चुका है तब वह नीचे आया और छिद्ररहित होकर कण्ठमें जुड़ गया। तत्पश्चात् मैं भेड़ोंको देखने के लिए गया ॥३६॥ जैसे ही मैं कुमारको-भाईको-देखने के लिए वहाँसे आगे बढ़ा वैसे ही मैंने भाईको वनके बीचमें सोता हुआ देखा ॥३७॥ तब मैंने उसे उठाकर पूछा कि हे भ्रात ! भेड़ें कहाँ गयी हैं। इसपर उसने उत्तर दिया कि हे पूज्य ! मैं सो गया था, इसलिए मुझे ज्ञात नहीं है कि वे किधर भाग गयी हैं ॥३८॥ ३३) ड तु for अत्र । ३४) अ स्वयमत्र मुखं गत्वा; व स्वयमत्तुं मुखम् ; भ ड क्षिप्रं for क्षिप्तम् । ३५) ब महत्सुख । ३६) भ ड इ मस्तकम्; ड इ निःसंधिकं लग्नम् । ३७) भ कुमारीरवं, ब कुमारीमवं; ब काननान्तरम् । ३८) इ स उत्थाप्य; अ पृष्टो पतयानाः क्व, क इ रे ता for भ्रातः; इ भ्रातः for तात । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org'
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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