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________________ २३५ धर्मपरीक्षा-१४ जजल्पुर्याज्ञिकाः साधो तव सत्यमिदं वचः । परमुत्पन्नमात्रेण तपो ऽग्राहि कथं त्वया ॥७९ परिणीताभवत् कन्या कथं ते जननी पुनः । सुदुर्घटमिदं ब्रूहि संदेहध्वान्तविच्छिदे ॥८० नभश्चरोऽवदद्वच्मि श्रूयतामवधानतः । पाराशरो ऽजनिष्टात्र तापसस्तापसाचितः ॥८१ असावुत्तरितुं नावा कैवा वाह्यमानया। प्रविष्टः कन्यया गङ्गां नवयौवनदेहया ॥८२ तामेष भोक्तुमारेभे दृष्ट्वा तारुण्यशालिनीम् । पुष्पायुधशभिन्नः स्थानास्थाने न पश्यति ॥८३ चकमे सापि तं बाला शापदानविभीलुका'। अकृत्यकरणेनापि सर्वो रक्षति जीवितम् ॥८४ ८३) १. पारासरः। ८४) १. सापदानभीता। मनोवेगके इस कथनको सुनकर यज्ञकर्ता ब्राह्मण बोले कि हे साधो! यह तुम्हारा कहना सत्य है । परन्तु यह कहो कि उत्पन्न होते ही तुमने तपको ग्रहण कैसे कर लिया ॥७९॥ इसके अतिरिक्त तुम्हारी माता तुमको जन्म देकर कन्या कैसे रही और तब वैसी अवस्थामें उसका पुनः विवाह कैसे सम्पन्न हुआ, यह अतिशय असंगत है । इस सब सन्देहरूप अन्धकारको नष्ट करनेके लिए हमें उत्तर दो ।।८।। इसपर मनोवेगने कहा कि यह भी मैं जानता हूँ। मैं उसे कहता हूँ, सावधान होकर सुनिए-यहाँ अन्य तापस जनोंसे पूजित-सब तापसोंमें श्रेष्ठ-एक पारासर नामका तापस हुआ है ॥८॥ वह जिस नावसे गंगा नदीको पार करनेके लिए उसके भीतर प्रविष्ट हुआ उसे एक नवीन यौवनसे विभूषित शरीरवाली धीवर कन्या चला रही थी ।।८२।। ____ उसे यौवनसे विभूषित देखकर पारासर कामके बाणोंसे विद्ध हो गया। इससे उसने उस कन्याको भोगना प्रारम्भ कर दिया। सो ठीक है-कामके बाणोंसे विद्ध हुआ प्राणी योग्य और अयोग्य स्थानको-स्त्रीकी उच्चता व नीचताको नहीं देखा करता है ।।८३।। शाप देनेके भयसे भीत होकर उस धीवर कन्याने भी उसे स्वीकार कर लिया । सो ठीक है, क्योंकि, सब ही प्राणी अयोग्य कार्य करके भी प्राणोंकी रक्षा किया करते हैं ।।८४।। ७९) क तदसत्य'; अ जजल्पि। ८१) इ वदद्वाग्मी। पतिम्....जीवितुम् । ८३) अ स्थाने स्थाने । ८४) ब चकमे सा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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