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अमितगतिविरचिता जलं हुताशे कमलं शिलातले खरे विषाणं' तिमिरं दिवाकरे । चलत्वमद्रावपि जातु जायते न सत्यता ते वचनस्य दुर्मते ॥१५ जगाद खेटः स्फुटमीदृशा वयं मृषापरास्तावदहो द्विजाः परम् । विलोक्यते कि भवदीयदर्शने न भूरिशो ऽसत्यमवार्यमीदृशम् ॥१६ कलयति सकलः परगतदोषं
रचयति विकलः स्वकमतपोषम् । परमिह विरलो ऽमितगतिबुद्धि
प्रथयति विमलो परगुणशुद्धिम् ॥९७
इति धर्मपरीक्षायाममितगतिकृतायां द्वादशः परिच्छेदः ॥१२॥
९५) १. सींगडा। ९७) १. जानाति । २. करोति । ३. अज्ञानी ।
हे दुर्बुद्धे ! कदाचित् अग्निमें जल-शीतलता, पत्थरपर कमल, गधेके मस्तकपर सींग, सूर्यके आस-पास अन्धकार और पर्वत (अचल) में अस्थिरता भी उत्पन्न हो जाये; परन्तु तेरे वचनमें कभी सत्यता नहीं हो सकती है ॥९५।।
यह सुनकर विद्याधर मनोवेग बोला कि हे ब्राह्मणो ! मैं तो स्पष्टतया निर्लज्ज व असत्यभाषी हूँ, किन्तु क्या इस प्रकारका अनिवार्य बहुत-सा असत्य आपके मतमें नहीं देखा जाता है ? ॥१६॥
सब ही जन दूसरेके दोषको जानते हैं और व्याकुल होकर अपने मतको पुष्ट किया करते हैं । परन्तु यहाँ ऐसा कोई विरला ही होगा जो स्वयं निर्मल होता हुआ अपरिमित ज्ञान व बुद्धिके साथ दूसरेके गुणोंकी निर्मलताको प्रसिद्ध करता हो-उसे विस्तृत करता हो ॥२७॥
इस प्रकार अमितगति विरचित धर्मपरीक्षामें बारहवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ॥१२॥
९६) अ स्फुटमत्रपा वयं । ९७) क ड इ सकलम्; अगुणसिद्धिम् ।
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