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________________ २०३ धर्मपरीक्षा-१२ ममाम्बरं दास्यति कोऽत्र याचितो न शक्यते याचितुमप्यनम्बरैः। कुलागतं जैनतपः करोम्यहं चिरं विचिन्त्येति तपोधनो ऽभवम् ॥९० पुराकरग्रामविभूषितां महीमरार्यमाणो निजलीलया ततः। क्रमेण युष्माकमिदं बुधाकुलं विलोकितुं पत्तनमागतो ऽधुना ॥११ इदं मया वः कथितं समासतो व्रतग्रहे कारणमात्मनः स्वयम्।। वचो निशम्येति खगस्य माहना बभाषिरे हासविकासिताननाः ॥९२ असत्यभाषाकुशलाः सहस्रशो विचित्ररूपाः पुरुषा निरीक्षिताः । त्वया समः कापि न दुर्मते परं विभाषते यो वितथं 'व्रतस्थितः ॥९३ न दन्तिनो निर्गमनप्रवेशनव्यवस्थितिप्रभ्रमणानि वीक्ष्यते।। कमण्डलौ भिण्डशिखाव्यवस्थिते जगत्त्रये कोऽपि कदाचनापि ना ॥९४ ९१) १. बम्भ्रम्यमाणः । ९३) १. असत्यम् । फिर मैंने सोचा कि यहाँ माँगनेपर भला मुझे वस्त्र कौन देगा तथा इस नग्न अवस्थामें वस्त्रको माँगना भी शक्य नहीं है। इस अवस्थामें अब मैं अपनी कुलपरम्परासे आये हुए जैन तपको ही करूँगा। बस, दीर्घ काल तक यही सोचकर मैं स्वयं तपस्वी (दिगम्बर मुनि) हो गया हूँ ॥२०॥ तत्पश्चात् नगरसमूहों (अथवा नगरों, खानों) और ग्रामोंसे सुशोभित इस पृथ्वीपर क्रीड़ावश विचरण करता हुआ क्रमसे पण्डित जनोंसे परिपूर्ण आपके इस नगरके देखनेकी इच्छासे इस समय यहाँ आ गया हूँ ॥९१।। मनोवेग कहता है कि हे ब्राह्मणो! इस प्रकार मेरे व्रतके ग्रहणमें जो कारण था उसे मैंने संक्षेपमें आप लोगोंसे कह दिया है। मनोवेग विद्याधरके इस सम्भाषणको सुनकर वे ब्राह्मण हास्यपूर्वक बोले कि अनेक रूपोंको धारण करके चतुराईके साथ असत्य भाषण करनेवाले हमने हजारों लोग देखे हैं, परन्तु हे दुर्बुद्धे ! तेरे समान असत्यभाषी दूसरा ऐसा कोई भी नहीं दिखा जो व्रतमें स्थित होकर भी इस प्रकारका असत्य भाषण करता हो ॥९२-९३॥ तीनों लोकोंमें कोई भी मनुष्य कभी भी भिण्डीके पौधेके अग्रभागपर स्थित कमण्डलुके भीतरसे हाथीके बाहर निकलने, उसके भीतर प्रवेश करने, अवस्थित रहने एवं वंश परिभ्रमण करनेको नहीं देख सकता है ये सब ही सर्वथा असम्भव हैं ॥१४॥ ९१) ब ग्राममहीं विभूषितां; इ मटाट्यमानो; अ सुधाकुलम् । ९२) क हास्यविकासितां । ९४) व क द इ भिण्डि; इ वा for ना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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