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धर्मपरीक्षा-१२ पुरे सन्ति परत्रापि साधवो ऽध्यापकाः स्फुटम् । चिन्तयित्वेत्यहं नष्ट्वा ततो यातः पुरान्तरम् ॥८० मदाम्बुधारादितभूतलो मया विलोकितः संमुखमागतो गजः। पुरान्तराले विशतात्र जङ्गमो' महोदयः शैल इवोरुनिझरः ॥८१ प्रसार्य हस्तं स्थिरकर्णवालेधिविभीषणो ललितयन्त्रियन्त्रणः । स धावितो मामवलोक्य सामः सविग्रहो मृत्युरिवानिवारणः॥८२ अनीक्षमाणः शरणं ततः परं निवेश्ये भिण्डे सरले कमण्डलुम् । अविक्षमाकम्पितसर्वविग्रहः पलायनं कर्तुमपारयंत्रहम् ॥८३ दैवात्समुत्पन्नमतिस्तदाहं नाले प्रविष्टः खलु तस्य भीतेः। अस्माद्विमुक्तो ऽस्म्यधुनेति हृष्टस्तिष्ठामि यावत्क्षणमत्र तावत् ॥८४
८०) १. गतः। ८१) १. गमागमनकृतः। ८२) १. सुंढिं । २. पूछडं । ३. पोंता (?) । ४. आंकुश। ५. प्रति । ६. हस्ती। ८३) १. अन्यम् । २. अवलम्ब्य । ३. विप्रवशेष प्रविष्ट (?) । ४. असमर्थः ।
तब दूसरे नगरमें भी तो शिक्षा देनेवाले साधु विद्यमान हैं, ऐसा सोचकर मैं वहाँसे भागकर दूसरे नगरमें जा पहुँचा ।।८०॥
__वहाँ मैंने नगरके भीतर प्रवेश करते समय बीचमें अपने मदजलकी धारासे पृथिवीपृष्ठको गीला करते हुए एक हाथीको देखा। सामने आता हुआ वह हाथी मुझे विशाल झरनेसे संयुक्त ऐसे चलते-फिरते हुए ऊँचे पर्वतके समान प्रतीत हो रहा था ॥८१।।
स्थिर कान व पूँछसे संयुक्त वह अतिशय भयानक हाथी महावतके नियन्त्रणको लाँघकर-उसके वशमें न रहकर--अपनी सूंड़को फैलाते हुए मेरी ओर इस प्रकारसे दौड़ा जिस प्रकार मानो अनिवार्य मृत्यु ही सामने आ रही हो ।।८२॥
यह देखकर मेरा समस्त शरीर कम्पित हो उठा और मैं भागनेके लिए सर्वथा असमर्थ हो गया। तब आत्मरक्षाका कोई दूसरा उपाय न देखकर मैंने कमण्डलु की शरण लेते हुए उसे एक भिण्डीके पौधेके ऊपर रखा और उसके भीतर प्रविष्ट हो गया ।।८।।
उस समय नसीबसे मुझे विचार सूझकर मैं उसकी भीतिसे कमण्डलुके टोंटीमें घुस गया और 'उससे अब छुट गया' इस आनन्दमें जो मैं क्षणभर रहता तो उधर विरुद्ध
८१) क शैल इवाम्बु, ड इ शैलमिवाम्बु । ८३) इमाणं; अ भिण्डे शरणं; ड इ अवेक्ष° । ८४) अ ब ड
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