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________________ २०० अमितगतिविरचिता अश्रद्धेयं'न वक्तव्यं प्रत्यक्षमपि वीक्षितम् । जानानैः पण्डितैननं वृत्तान्तं नृपमन्त्रिणोः ॥७३ प्रत्येष्यथै यतो यूयं वाक्यं नैकाकिनो मम । कथयामि ततो नाहं पृच्छयमानो ऽपि माहनाः ॥७४ ते' ऽजल्पिषुस्ततो भद्र कि बाला वयमीदृशाः। घटमानं वचो युक्त्या न जानीमो यतः स्फुटम् ॥७५ अभाषिष्ट ततः खेटो यूयं यदि विचारकाः । निगदामि तदा स्पष्टं श्रूयतामेकमानसैः॥७६ श्रावको मनिदत्तोऽस्ति श्रीपुरे स पिता मम । एकस्यर्षेरहं तेन पाठनाय समर्पितः ॥७७ प्रेषितो जलमानेतुं समाहं कमण्डलुम् । एकदा मुनिना तेन रममाणश्चिरं स्थितः ॥७८ एत्य छात्रैरहं प्रोक्तो नश्य रुष्टो गुरुस्तव । क्षिप्रमागत्य भद्रासौ करिष्यति नियन्त्रणम् ॥७९ ७३) १. अप्रतीतम् । २. क न विश्वासं कुर्वतोः । ७४) १. मनिष्यथ । २. विप्राः । ७५) १. विप्राः। ७९) १. बन्धनम् । मनोवेग कहता है कि हे विप्रो ! जो विद्वान् इस राजा और मन्त्रीके वृत्तान्तको जानते हैं उन्हें प्रत्यक्षमें भी देखी गयी घटनाको, यदि वह विश्वासके योग्य नहीं है तो, नहीं कहना चाहिए ॥७३॥ हे ब्राह्मणो ! मैं चूंकि अकेला हूँ, अतएव आप लोग मेरे कथनपर विश्वास नहीं करेंगे। इसी कारण आपके द्वारा पूछे जानेपर भी मैं कुछ कहना नहीं चाहता हूँ॥७४|| इसपर वे ब्राह्मण बोले कि हे भद्र ! क्या हम लोग ऐसे मूर्ख हैं जो युक्तिसे संगत वचनको स्पष्टतया न जान सकें ।।७।। __ इस प्रकार उन ब्राह्मणोंके कहनेपर मनोवेग विद्याधर बोला कि यदि आप लोग विचार. शील हैं तो फिर मैं स्पष्टतापूर्वक कहता हूँ, उसे स्थिरचित्त होकर सुनिए ।।७६।। श्रीपुरमें एक मुनिदत्त नामका श्रावक है । वह मेरा पिता है । उसने मुझे पढ़नेके लिए एक ऋषिको समर्पित किया था ।।७।। __एक दिन ऋषिने मुझे कमण्डलु देकर जल लाने के लिए भेजा। सो मैं बहुत समय तक खेलता हुआ वहींपर स्थित रहा ॥७८॥ तत्पश्चात् दूसरे छात्रोंने आकर मुझसे कहा कि हे भद्र ! गुरुजी तुम्हारे ऊपर रुष्ट हुए हैं, तुम यहाँसे भाग जाओ । अन्यथा, वे शीघ्र ही आकर तुम्हें बन्धनमें डाल देंगे |७९|| ७४) इ प्रत्येष्टव्यं यतो वाक्यं यूयं, ड तयो!यं; इ ब्राह्मणाः । ७९) अ अन्य for एत्य; अ नियन्त्रणाम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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