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________________ [१२] स्वस्य भागत्रयं दृष्ट्वा जगादाथ यमो ऽनिलम् । चरण्यो' मम किं भागस्त्रिगुणो विहितस्त्वया ॥१ यदि मे ऽन्तर्गता कान्ता द्वितीया विद्यते तदा। भागयोद्वितयं देयं निमित्तं त्रितये वद ॥२ वदति स्म ततो वायुभंद्रोदगिल मनःप्रियाम् । निबुध्यसे स्वयं साधो भागत्रितयकारणम् ॥३ प्रेतभर्ता ततश्छायां दृष्टवोद्गीणां सदागतिः । क्षिप्रं बभाण तां भद्रे त्वमुगिल हुताशनम् ॥४ तयोद्गीणे ततो वह्नौ भास्वरे विस्मिताः सुराः । अदृष्टपूर्वके दृष्टे विस्मयन्ते न के जनाः ॥५ १) १. क हे पवन। २) १. अन्नं घृत (?)। २. भागे। ४) १. वायुः, क पवनः। ___अपने उन तीन भागोंको देखकर यमने वायुसे पूछा कि हे वायुदेव ! तुमने मुझे तिगुना भाग क्यों दिया है ॥१॥ यदि मेरे उदरके भीतर स्थित स्त्री दूसरी है तो दो भाग देना योग्य कहा जा सकता था। परन्तु तीन भागोंके देनेका कारण क्या है, यह मुझे बतलाओ ।।२।। इसपर वायु बोला कि हे भद्र! तुम मनको प्रिय लगनेवाली उस स्त्रीको उगल दोउदरसे उसे बाहर निकाल दो-तब हे सज्जन ! इन तीन भागोंके देनेका कारण तुम्हें स्वयं ज्ञात हो जायेगा ॥३॥ इसपर यमने जब छायाको बाहर निकाला तब उसे बाहर देखकर उससे शीघ्र ही वायुने कहा कि हे भद्रे ! तुम उस अग्निको निकाल दो ॥४॥ तदनुसार जब छायाने उस प्रकाशमान अग्निको बाहर निकाला तब इस दृश्यको देखकर सब ही देव आश्चर्यको प्राप्त हुए । सो ठीक भी है, क्योंकि, जिस दृश्यको पहले कभी नहीं देखा है उसे देखकर किनको आश्चर्य नहीं होता-उसके देखनेपर सब ही जनको आश्चर्य हुआ करता है ।।५।। १) क ड इ चरेण्यो। २) अ भार्या for कान्ता; इ देयं तृतीये वद कारणम् । ३) ब क विबुध्यसे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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