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धर्मपरीक्षा-११
उक्त्वेति वायुः परिकल्प्य भोज्यं सुधाशिवगं सकलं निमन्त्र्य । एकैकमन्येषु वितीर्य पीठं यमस्य पीठत्रितयं स्म दत्ते ॥९४ स्वे स्वे स्थाने सपदि सकले नाकिलोके निविष्टे दत्त्वान्येषाममितगतिना' भागमेकैकमेव । दत्त' भागत्रितयमशने वायुना प्रेतभर्तुः सिद्धि कार्यं व्रजति भुवने न प्रपञ्चेन हीनम् ||९५
इति धर्मपरीक्षायाममितगतिकृतायाम् एकादशः परिच्छेदः ॥ ११ ॥
९४) १. निष्पाद्य ।
९५) १. पवनेन । २. क यमस्य ।
इस प्रकार कहकर वायुने भोजनको तैयार करते हुए उसके लिए सब ही देवोंको आमन्त्रित किया । तदनुसार उनके आनेपर उसने अन्य सब देवोंको एक-एक आसन देकर के लिए तीन आसन दिये ||१४||
तब उन सब देवोंके शीघ्र ही अपने-अपने स्थानमें बैठ जानेपर उस अपरिमित गमन करनेवाले वायुने अन्य सब देवोंके लिए उक्त भोजनमें से एक-एक भाग ही देकर यमराज के लिए तीन भाग दिये । सो ठीक भी है, क्योंकि, लोकमें धूर्तताके बिना कार्यसिद्धिको प्राप्त नहीं होता है ||१५||
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इस प्रकार अमितगतिविरचित धर्मपरीक्षा में ग्यारहवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ || ११ ॥
९४) इस for स्म । ब एकादशमः परिच्छेदः ।
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