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अमितगतिविरचिता
विजित्य सकला रामाः स्थिता या कान्तिसंपदा । यस्याः समजनि च्छाया स्वकीयादर्श संभवा ॥१७
बन्धु कन्या साजनिष्टाष्टवार्षिकी । परोपकारिणी लक्ष्मीः कृपणस्येव मन्दिरे ॥१८ अवादीदेकदा कान्तामसौ मण्डपकौशिकः । तीर्थयात्रां प्रिये कुर्वः समस्ताघविशोधिनीम् ॥१९ देवस्य काञ्चनच्छायां छायां प्रत्यप्रयोवनाम्' | कस्य कान्ते करन्यासीकुर्वहे शुभलक्षणाम् ॥२० यस्यैवैषाते कन्या गृहीत्वा सोऽपि तिष्ठति । न को sपि विद्यते लोके रामारत्नपराङ्मुखः ॥२१ द्विजिह्वसेवितो रुद्रो रामादत्तार्धविग्रहः । मन्मथानलतप्ताङ्गः सर्वदा विषमेक्षणः ॥२२
२
१८) १. मण्डपकौशिकस्य मन्दिरे ।
२०) १. नवयौवनाम् । २. कस्य देवस्य हस्ते थवणिकां (?) रक्षणाय ।
२१) १. कन्याम् ।
२२) १. हे नाथ, ईश्वरस्य दीयताम्, हे कान्ते ईश्वरस्य वृत्तं शृणु ।
वह अपनी कान्तिरूप लक्ष्मीसे सब ही स्त्रियोंको जीतकर स्थित थी । उसके समान यदि कोई थी तो वह दर्पण में पड़नेवाली उसीकी छाया थी— अन्य कोई भी स्त्री उसके समान नहीं थी ||१७||
मण्डपकौशिककी वह कन्या क्रमसे वृद्धिको प्राप्त होकर आठ वर्षकी हो चुकी थी । वह उसके यहाँ इस प्रकारसे स्थित थी जैसे मानो कृपण ( कंजूस ) के घर में परोपकारिणी लक्ष्मी ही स्थित हो ||१८||
एक समय वह मण्डपकौशिक अपनी स्त्रीसे बोला कि हे प्रिये ! चलो हम समस्त पापको शुद्ध करनेवाली तीर्थयात्रा करें ||१९||
परन्तु हे सुन्दरि ! सुवर्णके समान निर्मल कान्तिवाली व नवीन यौवनसे सुशोभित इस उत्तम लक्षणों से संयुक्त छायाको किस देव के हाथ में सौंपकर चलें ||२०||
कारण यह कि जिसके लिए यह कन्या सौंपी जायेगी वही उसको ग्रहण करके - अपनी बनाकर - स्थित हो सकता है, क्योंकि, लोकमें ऐसा कोई भी नहीं है जो स्त्रीरूप रत्नसे विमुख दिखता हो ॥२१॥
यदि महादेवके हाथोंमें इसे सौंपनेका विचार करें तो वह सर्पोंसे - चापलूस जनोंसेसेवित और सदा विषयदृष्टि रखनेवाला - तीन नेत्रोंसे सहित - होकर शरीर में कामरूप
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१७) ब याः; असंपदाम्; क ड समाजनि । १८) बटत्रपिणी । १९ ) अ ब कुर्मः; ब क विशोधनीं । २० ) कुर्महे । २१) भयस्य वैषा, क ड इ यस्य चैषा । २२) अ द्विजिह्वः ।
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