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धर्मपरीक्षा-१० ततः पवनवेगो ऽपि मार्जारः कपिलेक्षणः। मार्जार विद्यया कृष्णो विलुप्तश्रवणो' ऽजनि ॥६७ प्रविश्य पत्तनं कुम्भे बिडालं विनिवेश्य सः। तूर्यमाताडय घण्टाश्च निविष्टो हेमविष्टरे ॥६८ तूर्यस्वने ते विप्राः प्राहरागत्य वेगतः। कि रे वादमकृत्वा त्वं स्वर्णपोठमधिष्ठितः ॥६९ ततो ऽवोचदसौ विप्रा वादनामापि वेनि नो। करोम्यहं कथं वादं पशुरूपो वनेचरः ॥७१ यद्येवं त्वं कथं रूढो मूर्ख काञ्चनविष्टरे । निहत्य तरसा तूयं भट्टवादिनिवेदकम् ॥७१ सो ऽवादीदहमारूढः कौतुकेनात्र विष्टरे। न पुनर्वादिदर्पण तूर्यमास्फाल्य माहनाः ॥७२
६७) १. छिन्नकर्णः। ७२) १. हे विप्राः; क हे ब्राह्मणाः ।
तत्पश्चात् पवनवेगने भी मार्जार विद्याके प्रभावसे ऐसे बिलावके रूपको ग्रहण कर लिया जो वर्णसे काला, भूरे अथवा ताम्रवर्ण नेत्रोंसे सहित और कटे हुए कानोंसे संयुक्त था ॥६७॥
तत्पश्चात् मनोवेग बिलावको घड़ेके भीतर रखकर नगरमें गया और मेरी एवं घण्टाको बजाकर सुवर्णमय वादसिंहासनके ऊपर जा बैठा ॥६८॥
उस भेरीके शब्दको सुनकर ब्राह्मण शीघ्रतासे आये और बोले कि अरे मूर्ख! तू वाद न करके इस सुवर्णमय सिंहासनके ऊपर क्यों बैठ गया ? ॥६९॥
इसपर मनोवेग बोला कि हे ब्राह्मणो ! मैं तो 'वाद' इस शब्दको भी नहीं जानता हूँ, फिर भला मैं पशुतुल्य वनमें विचरनेवाला भील वादको कैसे कर सकता हूँ ॥७०।।
__ यह सुनकर ब्राह्मण बोले कि जब ऐसा है तब तू मूर्ख होकर भी शीघ्रतासे भेरीको बजाकर इस सुवर्णमय सिंहासनके ऊपर क्यों चढ़ गया। यह भेरी श्रेष्ठ वादीके आगमकी सूचना देनेवाली है ॥७॥
ब्राह्मणोंके इस प्रकार पूछनेपर वह बोला कि हे विप्रो ! मैं भेरीको बजाकर इस सिंहासनके ऊपर केवल कुतूहलके वश बैठ गया हूँ, न कि वादी होनेके अभिमानवश ||७२।।
६८) अ घण्टापि, ब घण्टां च, ड इ घण्टांश्च । ६९) ब क तूर्यस्वनश्रुतेविप्रा । ७१) अ क मूर्खः; व द भद्रवादि । ७२) इमास्फाल्यमाहतम् ।
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