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________________ १६१ धर्मपरीक्षा-१० विधाय दानवास्तेन हन्यन्ते प्रभुणा कथम् । न कोऽपि दृश्यते लोके पुत्राणामपकारकः ॥४३ कथं च भक्षयेत्तुप्तः सो ऽमरो म्रियते कथम् । निराकृतभयक्रोधः शस्त्रं स्वीकुरुते कथम् ॥४४ वेसारुधिरमांसास्थिमज्जाशुक्रादिदूषिते । व!गृहसमे गर्भे कथं तिष्ठति सर्ववित् ॥४९ भद्र चिन्तयतामित्थं पूर्वापरविचारिणाम। त्वदीयवचने भक्तिः संपन्नास्माकमूजिता ॥४६ आत्मनो ऽपि न यः शक्तः संदेहव्यपनोदने'। उत्तरं स कथं दत्ते परेषां हेतुवादिनाम् ॥४७ खलूक्त्वा त्वं ततो गच्छ जयलाभविभूषणः । मार्गयामो वयं देवं निरस्ताखिलदूषणम् ॥४८ ४३) १. निर्माप्य । २. हतकः । ४५) १. क त्वक् । ४६) १. अस्माकम् । २. युज्यते । ४७) १. स्फेटने। असाधारण प्रभावसे संयुक्त वह ईश्वर दानवोंको बना करके तत्पश्चात् स्वयं उनको नष्ट कैसे करता है ? कारण यह कि लोकमें ऐसा कोई भी नहीं देखा जाता है जो अपने पुत्रोंका स्वयं अपकार-अहित-करता हो ॥४३॥ वह सदा तृप्तिको प्राप्त होकर भोजन कैसे करता है, अमर (मृत्युसे रहित) होकर मरता कैसे है, तथा भय व क्रोधसे रहित होकर शस्त्रको कैसे स्वीकार करता है ? अर्थात् यह सब परस्पर विरुद्ध है ॥४४॥ वह सर्वज्ञ होकर चर्बी, रुधिर, मांस, हड्डियों, मज्जा और वीर्य आदिसे दूषित ऐसे पुरीपालय (संडास ) के समान घृणास्पद गर्भके भीतर कैसे स्थित रहता है ? ॥४५॥ ___इस प्रकार विचार करते हुए वे ब्राह्मण विद्वान् मनोवेगसे बोले कि हे भद्र ! हम लोग पूर्वापर विचार करनेवाले हैं, इसीलिए हम सबकी तुम्हारे कथनपर अतिशय भक्ति (श्रद्धा) जो व्यक्ति अपने ही सन्देहके दूर करने में समर्थ नहीं है वह युक्तिका आश्रय लेनेवाले अन्य जनोंको कैसे उत्तर दे सकता है ? नहीं दे सकता है ।।४७॥ यह कह करके उन्होंने मनोवेगसे कहा कि हे भद्र ! अब तुम जयलाभसे विभूषित होकर यहाँसे जाओ। हम लोग समस्त दोषोंसे रहित यथार्थ देवकी खोज करते हैं ॥४८॥ हुई है ॥४६॥ ४४) अ ब भक्षयते तृप्तः । ४७) ब आत्मनापि । ४८) अ क ड इ खलूक्तं । २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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