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________________ १६० अमितगतिविरचिता व्यापको यद्यसौ देवस्तदेष्टविरहः कथम् । यदि नित्यो वियोगेन तदासौ पीडितः कथम् ॥३७ आदेशं तनुते ऽन्यस्य स कथं भुवनप्रभुः। भृत्यानां कुर्वते कर्म न कदाचन पार्थिवः ॥३८ कथं पृच्छति' सर्वज्ञो याचते कथमीश्वरः । प्रबुद्धः स कथं शेते विरागः कामुकः कथम् ॥३९ स मत्स्यः कच्छपः कस्मात् सूकरो नरकेसरी। वामनो ऽभूत्रिधा रामः परप्राणीव दुःखितः ॥४० मुच्यमानं नवश्रोत्ररमेध्यानि समन्ततः । छिद्रितं विविधैदिछट्टैरिवामध्यमयं घटम् ॥४१ कल्मषैरपरामृष्टः' स्वतन्त्रः कर्मनिमितम् । गृह्णाति स कथं कायं समस्तामध्यमन्दिरम् ॥४२ ३७) १. इष्टवियोगः । २. रामदेवः। ३९) १. अन्यस्य शी [सी] ता क [क्व] गता। २. अनिद्रः । ४१) १. छिद्रैः द्वारैः। ४२) १. अस्पृष्टः देवः । २. स्वाधीनः । फिर जब वह ईश्वर-राम-सर्वत्र व्यापक है तब उसके इष्टका-सीताका-वियोग भी कैसे हो सकता है-उसके सर्वत्र विद्यमान रहते हुए किसीका वियोग सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त जब वह नित्य है-सदा एक ही स्वरूपसें रहता है तब वह इष्ट वियोगसे पीड़ित भी कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता है । अन्यथा उसकी नित्यता की हानि अनिवार्य होगी ॥३७॥ वह समस्त लोकका स्वामी होकर अन्यके आदेशानुसार कैसे कार्य करता है ? वैसा करना उसे उचित नहीं है। यथा-जो राजा है वह कभी सेवकोंके कार्यको नहीं किया करता है ॥३८॥ वह सर्वज्ञ होकर भी रामके रूपमें अन्य जनसे सीताकी वार्ताको कैसे पूछता है, सर्वसमर्थ होकर भी बलि राजासे याचना कैसे करता है, प्रबुद्ध-जागृत होकर भी कैसे सोता है, तथा रागसे रहित होकर भी विषय-भोगका अभिलापी कैसे होता है ? ॥३९॥ वह अन्य प्राणीके समान मत्स्य, कछवा, शूकर, नृसिंह, वामन (ब्राह्मण बटु ) और तीन प्रकारसे राम होकर दुखित क्यों हुआ है ? ॥४॥ जो कर्मसे रचा गया शरीर अनेक प्रकारके छेदोंसे छिद्रित मलके घड़ेके समान नौ मलद्वारोंसे-२ नेत्र, २ कान, २ नासिकाछिद्र, मुख, जननेन्द्रिय और गुदाके द्वारा-सब ओरसे अपवित्र मलको छोड़ा करता है तथा जो सभी अपवित्र (घृणित ) वस्तुओंका घर है, ऐसे उस निन्द्य शरीरको वह ईश्वर पापोंसे रहित व स्वतन्त्र होकर भी कैसे ग्रहण करता है ? ॥४१-४२।। ३७) ब तदिष्टाविरहः । ३८) अ कुरुते, ब क ड कुर्वते for तनुते । ४०) अ वामनो ऽसौ विधा; क परः प्राणी; ब दूषितः । ४२) क चर्म for कर्म; ब कथं देहं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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