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अमितगतिविरचिता प्ररूढपापाद्रिविभेवनाशिनों स धर्मवद्धि विततार संयतः। सच्चतुर्णामपि दुःखहारिणों सुखाय तेषामनवद्यचेष्टितः ॥८८ उपेत्य ते योजनमेकमर्गलं विसंवदन्ति स्म परस्परं जडाः । मनीषिताशेषफलप्रदायिनी कुतो हि संवित्तिरपास्तचेतसाम् ॥८९ अवोचदेको मम मे परः परो ममाशिषं साधुरदत्त मे ऽपरः।। प्रजल्पतामित्थमभवनिगलश्चिराय तेषां हतचेतसां कलिः ॥९० अजल्पदेकः किमपार्थक' जडा विधीयते राटिरसौ मुनीश्वरः। प्रपृच्छचतामेत्य विनिश्चयप्रदस्तमांसि तिष्ठन्ति न भास्करे सति ॥२१ इदं वचस्तस्य निशम्य ते ऽखिला मुनीन्द्रमासाद्य बभाषिरे जडाः । अदास्तदा यां मुनिपुंगवाशिषं प्रसादतः सा वद कस्य जायताम् ।।९२
८८) १. क दत्तवान् । २. क मुनिः । ३. एकवारम् । ४. आचरणम् । ८९) १. क गत्वा । २. अधिकम् ; क झकटकं चक्रुः । ३. क सम्यग्ज्ञान ; प्रज्ञा। ४. क मूर्खाणाम् । ९०) १. चिरकालम् । २. क क्लेशः। ९१) १. पथिकः । २. वृथा । ३. कलिः । ४. गत्वा ।
तब वृद्धिंगत पापरूप पर्वतको खण्डित करनेके लिए वज्रके समान होकर निर्दोष आचरण करनेवाले उस मुनीन्द्रने एक साथ उन चारोंके दुखको नष्ट करके सुख देनेवाली धर्मवृद्धि ( आशीर्वादस्वरूप ) दी ।।८८॥
___ पश्चात् वे चारों मूर्ख उक्त मुनिराजके पाससे एक योजन अधिक जाकर उस आशीर्वादस्वरूप धर्मवृद्धिके विषयमें परस्पर विवाद करने लगे। ठीक है, विवेक बुद्धिसे रहित प्राणियोंके भला इच्छित समस्त फलोंको प्रदान करनेवाला समीचीन ज्ञान कहाँसे हो सकता है ? नहीं हो सकता है ।।८९।।
उनमें से एक बोला कि साधुने आशीर्वाद मुझे दिया है, दूसरा बोला कि मुझे दिया है, तीसरा बोला कि नहीं मुझे साधुने आशीर्वाद दिया है, तथा चौथा बोला कि उसने मुझे आशीर्वाद दिया है। इस प्रकारसे विवाद करते हुए उन चारों मूों के मध्यमें बहुत समय तक निरंकुश झगड़ा चलता रहा ॥२०॥
अन्तमें किसी एकने कहा कि अरे मूर्यो ! व्यर्थ क्यों झगड़ा करते हो, उसके विषयमें निश्चय करा देनेवाले उसी मुनिसे जाकर पूछ लो। कारण यह कि सूर्यके होनेपर कभी अन्धकार नहीं रहता है ।।९१॥
उसके इस वचनको सुनकर वे सब मुर्ख मुनीन्द्र के पास जाकर बोले कि हे मुनिश्रेष्ठ ! जिस आशीर्वादको तुमने दिया है, कृपा करके यह कहिए कि वह किसके लिये है ॥२२॥
८८) ब ड सद्धर्म । ८९) इ मनीषिणाशेष; क इ संवृत्ति । ९०) अ ब परस्परो; अ इ दनिर्गलं ; अ हितचेतसां किल । ९१) क ड इ पपृच्छता ।
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