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________________ धर्मपरीक्षा-2 3 स्मरंजितस्वगगणं जिगाय येः कथं न सो ऽस्मान् तरसा विजेष्यते । इतीव भीता बलिनः क्रुधादयः सिषेविरे * यं" न महापराक्रमम् ||८३ तपांसि भेजे न तमांसि यः सदा कथा बभाषे विकथा न निन्दिताः । जघान दोषान्न गुणाननेकशो मुमोच निद्रां न जिनेन्द्र भारतीम् ॥८४ चकार यो विश्वजनीनशासनः समस्तलोकप्रतिबोधमञ्जसा । विबुद्धनिःशेषचराचरस्थितिजिनेन्द्र वद्देवनरेन्द्रवन्दितः ॥८५ निवारिताक्षप्रसरो ऽपि तत्त्वतः पदार्थजातं निखिलं विलो हते ॥ पालितस्थावरजङ्गमो ऽपि यश्चकार बाढं विषयप्रमर्दनम् ॥८६ गुणावनद्ध' पदपङ्कजलवे विपारसंसार पयोधितारकौ । ववन्दिरे तस्य मुनीश्वरस्य ते वसुंधरापृष्ठनिविष्टमस्तकाः ॥ ८७ ८३) १. यः मुनिः । २. ज्ञात्वा ( ? ) । ३. दोषाः । ४. नाश्रितवन्तः । ५. मुनिम् । ८४) १. सेवे न । ८५) १. विश्वजनेभ्यो हितं विश्वजनीनम् । विश्वजनीनं शासनम् आज्ञा यस्यासी । ८६) १. वस्तुसमूहम् । ८७) १. गुणैनिबन्धो [a] ; क युक्ती । २. यानपात्रम् ; क चरणकमलप्रवहणी । ३. क ते चत्वारो मूर्खाः । १३५ जिस मुनिने देवसमूहको जीतनेवाले कामदेवको जीत लिया है वह हम सबको शीघ्र ही जीत लेगा, ऐसा विचार करके ही मानो बलवान् क्रोधादि शत्रुओंने अतिशय भयभीत होकर उस महापराक्रमी मुनिकी सेवा नहीं की । तात्पर्य यह कि उक्त मुनिने कामके साथ ही क्रोधादि कषायों को भी जीत लिया था ||८३॥ वह मुनि तपोंका आराधन करता था, परन्तु अज्ञान अन्धकारका आराधना कभी नहीं करता था; वह धर्मकथाओंका वर्णन तो करता था, किन्तु स्त्रीकथा आदिरूप अप्रशस्त त्रिकथाओंका वर्णन नहीं करता था; वह अनेकों दोषोंको तो नष्ट करता था, किन्तु गुणोंको नष्ट नहीं करता था, तथा उसने निद्राको तो छोड़ दिया था, किन्तु जिनवाणीको नहीं छोड़ा था || ८४|| Jain Education International जिनेन्द्र के समान इन्द्रों व चक्रवर्तीसे वन्दित उस मुनिने समस्त चराचर लोककी स्थितिको जानकर सब ही प्राणियोंको प्रतिबोधित कर विश्वका हित करनेवाले आगम ( उपदेश) को किया था ॥ ८५॥ वह मुनीन्द्र इन्द्रियोंके व्यापारको रोक करके भी समस्त पदार्थसमूहको प्रत्यक्ष देखता था— अतीन्द्रिय प्रत्यक्षके द्वारा समस्त पदार्थोंको स्पष्टतासे जानता था, तथा स्थावर व स प्राणियों का संरक्षण करके भी विषय-भोगोंका अतिशय खण्डन करता था - - इन्द्रिय विषयोंको वह सर्वथा नष्ट कर चुका था ॥ ८६ ॥ उपर्युक्त चारों मूर्खोने उस मुनीन्द्रके उन दोनों चरण-कमलरूप नौका की पृथिवी पृष्ठपर मस्तक रखकर वन्दना की जो कि गुणोंसे सम्बद्ध होकर प्राणियोंको संसाररूप समुद्रसे पार उतारनेवाले थे ||८७|| ८३) व जिगेष्यते for विजेष्यते; अ अतीव भीता । ८४) ब कदा for सदा; अ गुणाननेनसः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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