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________________ धर्मपरीक्षा-८ १३३ इत्थं सुचन्दनत्यागी भाषितो ज्ञानदुर्विधः । सर्वनिन्दास्पदं मूर्खः सांप्रतं प्रतिपाद्यते ॥७३ चत्वारोऽथ महामूर्खा गच्छन्तः क्वापि लीलया। मुमुक्षुमेकमद्राक्षुजिनेश्वरमिवानघम् ॥७४ वोरनाथो ऽप्यनिस्त्रिशः सूनृतो द्वेयवाद्यपि । चित्तहार्यो ऽपि निःस्तेयो निष्कामोऽपि महाबलः ॥७५ धृतग्रन्थोऽपि निर्ग्रन्थः समलाङ्गो ऽपि निर्मलः । गुप्तिमानपि निर्बन्धो विरूपोऽपि जनप्रियः ॥७६ महावतनिविष्टो ऽपि यो ऽन्धकारातिमर्दकः। समस्तद्वन्द्वमुक्तो ऽपि समितीनां प्रवर्तकः ॥७७ ७३) १. क कथ्यते। ७५) १. न निर्दयः दयावान् ; क शस्त्ररहितः । २. क व्यवहारनिश्चयवादी । ३. न वाञ्छा। ७६) १. धृतशास्त्र। इस प्रकार मैंने विवेकज्ञानसे शून्य होकर चन्दनका परित्याग करनेवाले उस धोबीकी कथा कही है। अब इस समय अज्ञानादि सब ही दोषोंके आश्रयभूत मूर्खकी कथा कही जाती है ।।७३॥ कहीं पर चार महामूर्ख क्रीड़ासे जा रहे थे। उन्होंने मार्ग में जिनेश्वरके समान निर्दोष किसी एक मोक्षार्थी साधुको देखा ।।७४॥ वह साधु शूर-वीरोंका स्वामी होकर भी निर्दय नहीं था, यह विरोध है ( कारण कि शूर-वीर कभी शत्रुके ऊपर दया नहीं किया करते हैं )। उसका परिहार-वह कर्मविजेता होकर भी प्राणिरक्षामें तत्पर था। वह द्वैतवादी होकर भी सच्चा था, यह विरोध है । परिहार-वह अस्ति-नास्ति, एक-अनेक, नित्य-अनित्य और भेद-अभेद आदि परस्पर विरुद्ध दो धर्मोंका नयोंके आश्रयसे कथन करता हुआ भी यथार्थवक्ता था। वह दूसरोंके चित्तका अपहरण करता हुआ भी चौर कर्मसे रहित था-वह व्रत-संयमादिके द्वारा भव्यजनोंके चित्तको आकर्षित करता हुआ चौर्य कर्म आदि पापोंका सर्वथा त्यागी था, कामदेवसे रहित होकर भी अतिशय बलवान् था-सब प्रकारकी विषयवासनासे रहित होकर आत्मिक बलसे परिपूर्ण था, ग्रन्थ (परिग्रह ) को धारण करता हुआ भी उस परिग्रहसे रहित था-अनेक ग्रन्थोंका ज्ञाता होता हुआ भी दिगम्बर था, मलपूर्ण शरीरको धारण करता हुआ भी मलसे रहित था-स्नानका परित्याग कर देनेसे मलिन शरीरको धारण करता हुआ भी सब प्रकारके दोषोंसे रहित था, गुप्ति ( कारागार या बन्धन ) से संयुक्त होता हुआ भी बन्धनसे रहित (स्वतन्त्र ) था-मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तियोंका धारक होकर भी क्लिष्ट कर्मबन्धसे रहित था, कुरूप होकर भी जनोंको प्रिय था-विविध स्वरूपका धारक होकर भी तप-संयमादिके कारण जनोंके अनुरागका विषय था, महावत (प्राणिरक्षाबत ) में स्थित होकर भी अन्धे ७३) ब मयेत्थं चन्दन....सर्वविद्यास्पदं मूर्ख; ब क इ संप्रति । ७४) ब क ड इ अपि for अथ; अ गच्छन्ति । ७५) ब पि निस्त्रिशः....हार्यपि; अ निस्तेजो, क निस्ने हो । ७६) अ निर्बद्धो । ७७) क इ कारादिमर्दकः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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