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________________ १३२ अमितगतिविरचिता इत्थं शोकेन घोरेण रजको दह्यते ऽनिशम् । अज्ञाने वर्तमानानां जायते न सुखासिको' ॥६८ एकस्य निम्बकाष्ठस्य काष्ठानां निवहं कथम् । ददाति वाणिजो नेदं परिवर्तो व्यबुध्यत ॥६९ दुश्छेद्यं सूर्यरश्मोनामगम्यं चन्द्ररोचिषाम् । दुर्वारमिदमज्ञानं तमसो ऽपि परं' तमः ॥७० चित्तेन वीक्षते तत्त्वं ध्वान्तमूढो न चक्षुषा। अज्ञानमोहितस्वान्तो न चित्तेन न चक्षुषा ॥७१ परिवर्तसमो विप्रा विद्यते यदि कश्चन । बिभेम्यहं तदा तत्त्वं पृच्छयमानो ऽपि भाषितुम् ॥७२ ६८) १. सुखस्थितिः। ६९) १. क रजकः । ७०) १. उत्कृष्टम् । ७२) १. क रजकसदृशो। इस प्रकार वह धोबी महान शोकसे रात-दिन सन्तप्त रहा। ठीक है, अज्ञानमें वर्तमान-बिना विचारे कार्य करनेवाले-मनुष्योंके सुखकी स्थिति कैसे हो सकती है. ? नहीं हो सकती है ॥६८॥ वह वैश्य एक नीमकी लकड़ी के लिए लकड़ियोंके समूहको कैसे देता है, इस परिवर्तनको धोबी नहीं जान सका ॥६९।। यह अज्ञानरूप अन्धकार न तो सूर्यकी किरणों द्वारा भेदा जा सकता है और न चन्द्रकी किरणों द्वारा भी नष्ट किया जा सकता है । इसीलिए इस दुर्निवार अज्ञानको उस लोकप्रसिद्ध अन्धकारसे मी उत्कृष्ट अन्धकार समझना चाहिए ।।७०।। इसका कारण यह है कि अन्धकारसे विमूढ़ मनुष्य यद्यपि आँखसे वस्तुस्वरूपको नहीं देखता है, फिर भी वह अन्तःकरणसे तो वस्तुस्वरूपको देखता ही है। परन्तु जिसका मन अज्ञानतासे मुग्ध है वह उस वस्तुस्वरूपको न अन्तःकरणसे देखता है और न आँखसे भी देखता है ।।७१॥ अतएव हे विप्रो ! बहुत-सी लकड़ियोंसे उस चन्दनकी लकड़ीका परिवर्तन करनेवाले उस धोबीके समान यदि कोई ब्राह्मण आपके मध्यमें विद्यमान है तो मैं पूछे जानेपर भी कुछ कहनेके लिए डरता हूँ ॥७२॥ ६८) ब ऽदह्यतानिशम् ; इ सुखाशिका । ६९) क विबुध्यते । ७०) अरश्मीनां न गम्यं । ७२) अ विप्रो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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