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________________ महावीर के उपदेश : १४३ : १ : वैराग्य सरल आत्मा शुद्ध होती है, और शुद्ध आत्मा में ही धर्म ठहरता है । घृत - सिंचित अग्नि की तरह प्रदीप्त शुद्ध साधक ही निर्वाण को प्राप्त करता है । : २ : मनुष्य का जीवन और रूप- सौन्दर्य बिजली की चमक की तरह चंचल है । राजन् ! आश्चर्य है, फिर भी तुम इस पर मुग्ध हो रहे हो ! परलोक की ओर क्यों नहीं निहारते ? : ३ : जो मनुष्य दूसरे का तिरस्कार करता है, वह चिरकाल तक संसार में परिभ्रमण करता है । पर निन्दा पाप का कारण है, यह समझकर साधक अहंभाव का पोषण नहीं करते । : ४ तुम जिनसे सुख को आशा रखते हो, वस्तुतः वे सुख के कारण नहीं हैं । मोह से घिरे हुए लोग इस बात को नहीं समझते । : १५ : पीला पत्ता जमीन पर गिरता हुआ अपने साथी पत्तों से कहता है- "आज जैसे तुम हो, एक दिन मैं भी ऐसा ही था, और आज जैसा मैं हूं, एक दिन तुम्हें भी ऐसा ही होना है ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001422
Book TitleMahavira Siddhanta aur Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1986
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Discourse, N000, & N005
File Size6 MB
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