________________
भक्तामर स्तोत्र
सो मैं शक्तिहीन थुति करू, भक्तिभाववश कुछ नहिं डरू। ज्यों मृग निज सुत पालन हेतु,मृगपति सन्मुख जाय अचेत ।।
मैं शठ सुधी-हसन को धाम, मुझ तब भक्ति बुलावै राम । ज्यों पिक अंव-कली परभाव, मधुरितु मधुर करे आराव ।।
तुम जस जंपत जिन छिनमाहि,जनम-जनम के पाप नसाहिं। ज्यों रवि उदय फटे ततकाल,अलिवत नील निशातमजाल।।
: ८ : तुमप्रभाव ते करहूँ विचार, होसी यह थुति जनमन-हार । ज्यों जल कमलपत्र पै परै, मुक्ताफल की दुति विस्तरै ॥
तुममुनमहिमा हतदुखदोष, सो तो दूर रहो सुखपोष । पापविनाशक है तुम नाम, कमल-विकाशी ज्यों-रविधाम ।।
नहिं अचंभ जो होहिं तुरन्त, तुमसे तुम गुण बरनत संत । जो अधीन को आप समान, करै न सो निदित धनवान ।।
इकटक जन तुमको अवलोय, और विर्षे रति करै न सोय । को करि खीरजलधि जलपान, खारनीर पीवै मतिमान ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org