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भक्तामर स्तोत्र
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अन्वयार्थ - ( उद्भूतभीषणजलोदर - भारभुग्नाः ) उत्पन्न हुए भयंकर जलोदर रोग के भार से झुके हुए ( शोच्यां दशाम् ) शोचनीय अवस्था को (उपगताः ) पहुँचे हुए और (च्युत - जीविताशाः ) जिन्होने जीने की आशा ही छोड़ दी हो, ( मर्त्याः ) मनुष्य ( त्वत्पाद - पंकज - रजोSमृतदिग्ध - देहाः ) आपके चरण कमलो की रज रूपी अमृत से लिप्त शरीर वाले होकर ( मकरध्वज तुल्यरूपाः ) कामदेव के तुल्य रूप वाले ( भवन्ति ) हो जाते हैं ||४५ ॥
भावार्थ- जो भयंकर जलोदर रोग के भार से जर्जर हैं, फलतः जीवन की आशा तक छोड़ चुके हैं, मरणासन्न असाध्य रोगी भी, यदि आपके चरण-कमलों की रज-रूपी अमृत को शरीर पर लगा लें, तो तत्क्षण ही कामदेव के समान अत्यन्त सुन्दर रूप को प्राप्त कर सकते हैं ।
आपादकण्ठमुरु खलवेष्टितांगाः,
गाढं बृहन्निगडकोटि निघृष्टजंघाः । त्वन्नाममन्त्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः, सद्यः स्वयं विगतबन्धभया भवन्ति ॥४६॥ अन्वयार्थ --- (आपादकण्ठम् ) पैर से लेकर कण्ठ तक (उरु' खलवेष्टितांगा :) बड़ी बड़ी सांकलों से जिनका
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