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लिए आप मुझ से बहुत दिनों से आग्रह कर रहे थे। इधर मुझे अवकाश ही नहीं मिल पाता था । दूसरे यहाँ भक्तामर - स्तोत्र की कोई संस्कृत टीका भी नहीं मिल रही थी। अनुवाद हो तो कैसे हो ? परन्तु उनका आग्रह बढ़ता गया और बिना किसी विशिष्ट साधन के मुझे यह अनुवाद करना ही पड़ा । क्या है, कैसा है'यह पाठक अपने - आप अनुमान करें। अपना काम प्रभु के चरणों में यह भेंट चढ़ाने का था, सो चढ़ा दी। भक्त का आग्रह पूरा हुआ और हमने अपनी श्रद्धा का मंगलमार्ग प्रशस्त किया। __आशा है, श्रद्धालु भक्त - जन इस स्तोत्र से लाभ उठाएँगे और आचार्यश्री के ही शब्दों में आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों हो प्रकार की लक्ष्मी के स्वामी बनेंगे।
दिल्ली कार्तिक शुक्ला ज्ञानपंचमी - उपाध्याय अमरमुनि
वीराब्द २४७४
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