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________________ भक्तामर स्तोत्र हे भगवन् ! संसार के सब पुरुषों में उत्तम होने के कारण वस्तुतः पुरुषोत्तम विष्णु भी आप ही हो। टिप्पणी संसार में साम्प्रदायिक द्वन्द्व बड़े भयंकर परिणाम लाते हैं अपने-अपने देवों के अलग-अलग नाम रखकर धर्मों की एकता के क्षेत्र को छिन्न-भिन्न करना भी साम्प्रदायिक नेताओं का काम रहा है । जैन-दर्शन इस साम्प्रदायिक विचार-धारा का कट्टर विरोधी है। वह अनेकता में एकता की और भेद अभेद की स्थापना करता है । आचार्यश्री ने इस आदर्श को लेकर अपनी विलक्षण काव्य - प्रतिभा के द्वारा बुद्ध, शङ्कर ब्रह्मा ओर विष्णु के नामों का समन्वय बड़े सुन्दर रूप में करके दिखाया है। तुभ्यं नमस्त्रिभुवनातिहराय नाथ ! तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय । तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिन ! भवोदधि-शोषणाय ॥२६॥ अन्वयार्थ-(नाथ) हे स्वामिन् ! (त्रिभुवनातिहराय) तीनों लोकों की पीड़ा-- दु:ख को हरण करने वाले (तुभ्यं नमः ) आपको नमस्कार हो। ( क्षितितलामल. भूषणाय ) भूतल के निर्मल आभूषणरूप ( तुभ्यं नमः) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001421
Book TitleBhaktamara stotra
Original Sutra AuthorMantungsuri
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1987
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, M000, & M010
File Size3 MB
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